+ शंकाकार - प्रत्येक निरंश में द्रव्य का लक्षण होने से उन्हें प्रथक-प्रथक द्रव्य ही क्यों न माना जाय ? -
भवतु विवक्षितमेतन्ननु यावन्‍तो निरंदशदेशांशाः
तल्लक्षणयोगादप्पणुवद्द्रव्याणि सन्तु तावन्ति ॥31॥
अन्वयार्थ : शंकाकार कहता है कि यह तुम्हारी विवक्षा रहो, अर्थात्‌ तुम जो द्रव्य में निरंश (फिर जिसका खण्ड न हो सके) अंशों की कल्पना करते हो, वह करो । परन्तु जितने भी निरंश-देशांश हैं उन्हीं को एक एक द्रव्य समझो । जिस प्रकार परमाणु एक द्रव्य है उसी प्रकार एक द्रव्य में जितने निरंश-देशांशों की कल्पना की जाती है, उनको उतने ही द्रव्य समझना चाहिये न कि एक द्रव्य मानकर उसके अंश समझो । द्रव्य का लक्षण उन प्रत्येक अंशों में जाता ही है ।