व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः ।
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ॥5॥
अन्वयार्थ : [व्यवहरण-नयः] जो व्यवहारनय है वह [यद्यपि] यद्यपि [इह प्राक्-पदव्यां] इस पहली पदवी में (जब तक शुद्धस्वरूप की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक) [निहित-पदानां] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [हन्त] अरे रे ! [हस्तावलम्बः स्यात्]हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावों से रहित (शुद्धनय के विषयभूत) परम 'अर्थ' को अन्तरङ्ग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं उन्हें [एषः] यह व्यवहारनय [किञ्चित् न] कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है ।