एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ।
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥6॥
अन्वयार्थ : [अस्य आत्मनः] इस आत्मा को [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम्] अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना (श्रद्धान करना) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम्]- ही नियम से सम्यग्दर्शन है । यह आत्मा [व्याप्तुः] अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त (रहने वाला) है, और [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य] शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा [पूर्ण-ज्ञान-घनस्य] पूर्ण ज्ञानघन है । [च] एवं [तावान् अयं आत्मा] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही यह आत्मा है । [तत्] इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि ''[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं मुक्त्वा] इस नवतत्त्व की परिपाटी को छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः] यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो'' ।