प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् ।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ॥25॥
अन्वयार्थ : [इदं नगरम् हि] यह नगर ऐसा है कि जिसने [प्राकार-कवलित-अम्बरम्] कोट के द्वारा आकाश को ग्रसित कर रखा है , [उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम्] बगीचों की पंक्तियों से जिसने भूमितल को निगल लिया है और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव] कोट के चारों ओर की खाई के घेरे से मानों पाताल को पी रहा है ।