नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम् ।
अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥26॥
अन्वयार्थ : [जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्र का रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है, [नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वांगम्] जिसमें सभी अंग सदा अविकार और सुस्थित हैं, [अपूर्व-सहज-लावण्यम्] जिसमें अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है और [समुद्रं इव अक्षोभम्] जो समुद्र की भांति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है ।