(स्वागता)
सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् ।
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥30॥
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [अहं] मैं [स्वयं] स्वतः ही [एकं स्वं] अपने एक आत्मस्वरूप का [चेतये] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं] कि जो स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्य के परिणमन से पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये यह [मोहः] मोह [मम] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति] कुछ भी नहीं लगता नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है । [शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि] मैं तो शुद्ध चैतन्य के समूहरूप तेजपुंज का निधि हूँ ।