विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः ॥34॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तुझे [अपरेण] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन] व्यर्थ ही कोलाहल करने से [किम्] क्या लाभ है ? तू [विरम] इस कोलाहल से विरक्त हो और [एकम्] एक चैतन्यमात्र वस्तु को [स्वयम् अपि] स्वयं [निभृतः सन्] निश्चल लीन होकर [पश्य षण्मासम्] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे [हृदय-सरसि] अपने हृदय सरोवर में, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गल से भिन्न है ऐसे उस [पुंसः] आत्मा की [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति] प्राप्ति नहीं होती है [किं च उपलब्धिः] या होती है ?