सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं
स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् ।
इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम् ॥35॥
अन्वयार्थ : [चित्-शक्ति -रिक्तं] चित्शक्ति से रहित [सकलम् अपि] अन्य समस्त भावों को [अह्नाय] मूल से [विहाय] छोड़कर [च] और [स्फुटतरम्] प्रगटरूप से [स्वं चित्-शक्तिमात्रम्] अपने चित्शक्तिमात्र भाव का [अवगाह्य] अवगाहन करके, [आत्मा] भव्यात्मा [विश्वस्य उपरि] समस्त पदार्थ समूहरूप लोक के ऊपर [चारु चरन्तं] सुन्दर रीति से प्रवर्तमान ऐसे [इमम्] यह [परम्] एकमात्र [अनन्तम्] अविनाशी [आत्मानम्] आत्मा का [आत्मनि] आत्मा में ही [साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो ।