(शार्दूलविक्रीडित)
वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो
नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ॥42॥
अन्वयार्थ : [यतः अजीवः अस्ति द्वेधा] अजीव दो प्रकार के हैं — [वर्णाद्यैः सहितः]वर्णादिसहित [तथा विरहितः] और वर्णादिरहित; [ततः] इसलिये [अमूर्तत्वम् उपास्य]अमूर्तत्व का आश्रय लेकर भी (अर्थात् अमूर्तत्व को जीव का लक्षण मानकर भी) [जीवस्य तत्त्वं] जीव के यथार्थ स्वरूप को [जगत् न पश्यति] जगत् नहीं देख सकता; -- [इति आलोच्य] इसप्रकार परीक्षा करके [विवेचकैः] भेदज्ञानी पुरुषों ने [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणों से रहित [चैतन्यम्] चेतनत्व को जीव का लक्षण कहा है [समुचितं] वह योग्य है । [व्यक्तं] वह चैतन्य लक्षण प्रगट है, [व्यज्जित-जीव-तत्त्वम्] उसने जीव के यथार्थ स्वरूप को प्रगट किया है और [अचलं] वह अचल है -- चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है। [आलम्ब्यताम्] जगत् उसी का अवलम्बन करो ! (उससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है।)