अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् ।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥41॥
अन्वयार्थ : [अनादि] जो अनादि है, [अनन्तम्] अनन्त है, [अचलं] अचल है, [स्वसंवेद्यम्] स्वसंवेद्य है [तु] और [स्फुटम्] प्रगट है — ऐसा जो [इदं चैतन्यम्] यह चैतन्य [उच्चैः] अत्यन्त [चकचकायते] चकचकित – प्रकाशित हो रहा है, [स्वयं जीवः] वह स्वयं ही जीव है ।