(स्रग्धरा)
ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन्
व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात् ।
अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत्
विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ॥50॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानी] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणति] अपनी और पर की परिणति को [जानन् अपि] जानता हुआ प्रवर्तता है [च] और [पुद्गलः अपि अजानन्] पुद्गलद्रव्य अपनी तथा पर की परिणति को न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात्] इसप्रकार उनमें सदा अत्यन्त भेद होने से (दोनों भिन्न द्रव्य होने से), [अन्तः] वे दोनों परस्पर अन्तरङ्ग में [व्याप्तृव्याप्यत्वम्] व्याप्यव्यापकभाव को [कलयितुम् असहौ] प्राप्त होने में असमर्थ हैं । [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः] जीव-पुद्गल को कर्ताकर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [अज्ञानात्] अज्ञान के कारण [तावत् भाति] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत्] जहाँ तक [विज्ञानार्चिः] (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं] करवत की भाँति निर्दयता से (उग्रतासे) [सद्यः भेदम् उत्पाद्य] जीव-पुद्गल का तत्काल भेद उत्पन्न कर के [न चकास्ति] प्रकाशित नहीं होती ।