आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः ।
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥56॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा तो [सदा] सदा [आत्मभावान्] अपने भावों को [करोति] करता है और [परः] परद्रव्य [परभावान्] पर के भावों को करता है; [हि] क्योंकि जो [आत्मनः भावाः] अपने भाव हैं सो तो [आत्मा एव] आप ही है और जो [परस्य ते] पर के भाव हैं सो [परः एव] पर ही है ।