आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै-
र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः ।
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥55॥
अन्वयार्थ : [इह] इस जगत्में [मोहिनाम्] मोही जीवों का '[परं अहम् कुर्वे] परद्रव्य को मैं करता हूँ' [इति महाहंकाररूपं तमः] ऐसा परद्रव्य के कर्तृत्व का महा अहंकाररूप अज्ञानान्धकार [ननु उच्चकैः दुर्वारं] जो अत्यन्त दुर्निवार है वह [आसंसारतः एव धावति] अनादि संसार से चला आ रहा है । [अहो] अहो ! [भूतार्थपरिग्रहेण] परमार्थनय का अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनय का ग्रहण करने से [यदि] यदि [तत् एकवारं विलयं व्रजेत्] वह एक बार भी नाश को प्राप्त हो [तत्] तो [ज्ञानघनस्य आत्मनः] ज्ञानघन आत्मा को [भूयः] पुनः [बन्धनम् किं भवेत्] बन्धन कैसे हो सकता है ?