अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरंगाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ॥58॥
अन्वयार्थ : [अज्ञानात्] अज्ञान के कारण [मृगतृष्णिकां जलधिया] मृगमरीचिका में जल की बुद्धि होने से [मृगाः पातुं धावन्ति] हिरण उसे पीने को दौड़ते हैं; [अज्ञानात्] अज्ञान के कारण ही [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन] अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी में सर्प का अध्यास होने से [जनाः द्रवन्ति] लोग भागते हैं; [च] और [अज्ञानात्] अज्ञान के कारण [अमी] ये जीव, [वातोत्तरंगाब्धिवत्] पवन से तरंगित समुद्र की भाँति [विकल्पचक्रकरणात्] विकल्पों के समूह को करने से [शुद्धज्ञानमयाः अपि] यद्यपि वे स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि [आकुलाः] आकुलित होते हुए [स्वयम्] अपने आप ही [कर्त्रीभवन्ति] कर्ता होते हैं ।