(वसन्ततिलका)
ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम् ।
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किंचनापि ॥59॥
अन्वयार्थ : [हंसः वाःपयसोः इव] जैसे हंस दूध और पानी के विशेष-(अन्तर)को जानता है उसीप्रकार [यः] जो जीव [ज्ञानात्] ज्ञान के कारण [विवेचकतया] विवेकवाला (भेदज्ञानवाला) होने से [परात्मनोः तु] पर के और अपने [विशेषम्] विशेष को [जानाति] जानता है [सः] वह (जैसे हंस मिश्रित हुए दूध और पानी को अलग कर के दूधको ग्रहण करता है उसीप्रकार) [अचलं चैतन्यधातुम्] अचल चैतन्यधातु में [सदा] सदा [अधिरूढः] आरूढ़ होता हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [जानीत एव हि] मात्र जानता ही है, [किंचन अपि न करोति] किंचित्मात्र भी कर्ता नहीं होता ।