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य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं
स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् ।
विकल्पजालच्युतशान्तचित्ता-
स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥69॥
अन्वयार्थ : [ये एव] जो [नयपक्षपातं मुक्त्वा] नयपक्षपात को छोड़कर [स्वरूपगुप्ताः] स्वरूप में गुप्त होकर [नित्यम्] सदा [निवसन्ति] निवास करते हैं [ते एव] वे ही, [विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः] जिनका चित्त विकल्पजाल से रहित शान्त हो गया है ऐसे होते हुए, [साक्षात् अमृतं पिबन्ति] साक्षात् अमृत को पीते हैं ।