(शार्दूलविक्रीडित)
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ॥98॥
अन्वयार्थ : [कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति] निश्चय से न तो कर्ता कर्म में है, और न कर्म कर्ता में ही है — [यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते] यदि इसप्रकार परस्पर दोनों का निषेध किया जाये [तदा कर्तृकर्मस्थितिः का] तो कर्ता-कर्म की क्या स्थिति होगी ? (अर्थात् जीव-पुद्गल के कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा ।) [ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि] इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञातामें ही है और कर्म सदा कर्ममें ही है [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता] ऐसी वस्तुस्थिति प्रगट है [तथापि बत] तथापि अरे ! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति] नेपथ्य में यह मोह क्यों अत्यन्त वेगपूर्वक नाच रहा है ? (इसप्रकार आचार्य को खेद और आश्चर्य होता है ।)