(द्रुतविलम्बित)
तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो
द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् ।
ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ॥100॥
अन्वयार्थ : [अथ] अब (कर्ता-कर्म अधिकार के पश्चात्), [शुभ-अशुभ-भेदतः] शुभ और अशुभ के भेद से [द्वितयतां गतम् तत् कर्म] द्वित्व को प्राप्त उस कर्म को [ऐक्यम् उपानयन्]एक रूप करता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा] जिसने अत्यंत मोहरज को दूर कर दिया है ऐसा [अयं अवबोध-सुधाप्लवः] यह (प्रत्यक्ष – अनुभवगोचर) ज्ञान सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमा) [स्वयम्] स्वयं [उदेति] उदय को प्राप्त होता है ।