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एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना-
दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव ।
द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥101॥
अन्वयार्थ : [एक:] एक तो [ब्राह्मणत्व-अभिमानात्] 'मैं ब्राह्मण हूँ' इसप्रकार ब्राह्मणत्व के अभिमान से [दूरात्] दूर से ही [मदिरां] मदिरा का [त्यजति] त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति] 'मैं स्वयं शूद्र हूँ' यह मानकर [नित्यं] नित्य [तया एव] मदिरा से ही [स्नाति] स्नान करता है अर्थात् उसे पवित्र मानता है । [एतौ द्वौ अपि] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ] शूद्रा के पेट से एक ही साथ उत्पन्न हुए हैं वे [साक्षात् शूद्रौ] दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [अपि च] तथापि [जातिभेदभ्रमेण] जातिभेद के भ्रम सहित [चरतः] प्रवृत्ति करते हैं । इसीप्रकार पुण्य और पाप के सम्बन्ध में समझना चाहिए।