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हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां
सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः
तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ॥102॥
अन्वयार्थ : [हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां] हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय — इन चारों का [सदा अपि] सदा ही [अभेदात्] अभेद होने से [न हि क र्मभेदः] कर्म में निश्चय से भेद नहीं है; [तद् समस्तं स्वयं] इसलिये, समस्त कर्म स्वयं [खलु] निश्चय से [बन्धमार्ग-आश्रितम्] बंधमार्ग के आश्रित है और [बन्धहेतुः] बंध का कारण है, अतः [एक म्इष्टं] कर्म एक ही माना गया है — उसे एक ही मानना योग्य है ।