(शिखरिणी)
यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति ।
अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ॥105॥
अन्वयार्थ : [यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूप होता हुआ — परिणमता हुआ भासित होता है [अयंशिवस्य हेतुः] वही मोक्ष का हेतु है, [यतः] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि शिवः इति] वह स्वयमेव मोक्ष स्वरूप है; [अतः अन्यत्] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य] वह बन्ध का हेतु है, [यतः] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है । [ततः] इसलिये [ज्ञानात्मत्वं भवनम्] ज्ञानस्वरूप होने का ( – ज्ञानस्वरूप परिणमित होने का) अर्थात् [अनुभूतिः हि] अनुभूति करने का ही [विहितम्] आगम में विधान है।