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शार्दूलविक्रीडित)
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः।
किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्-
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः॥110॥
अन्वयार्थ : [यावत्] जब तक [ज्ञानस्य क र्मविरतिः] ज्ञान की कर्मविरति [सा सम्यक् पाकम् न उपैति] भलिभाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती [तावत्] तब तक [कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः] कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा है उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है । [किन्तु] किन्तु [अत्र अपि] यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मा में [अवशतः यत् कर्म समुल्लसति] अवशपनें जो कर्म प्रगट होता है [तत् बन्धाय] वह तो बंध का कारण है, और [मोक्षाय] मोक्षका कारण तो, [एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम्] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही है — [स्वतः विमुक्तं] जो कि स्वतःविमुक्त है ।