भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं
मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ।
हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ॥112॥
अन्वयार्थ : [पीतमोहं] मोहरूपी मदिरा के पीने से [भ्रम-रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत्]भ्रमरस के भार से शुभाशुभ कर्म के भेदरूपी उन्माद को जो नचाता है [तत् सक लम् अपि कर्म] ऐसे समस्त कर्म को [बलेन] अपने बल द्वारा [मूलोन्मूलं कृत्वा] समूल उखाडकर [ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे] ज्ञानज्योति अत्यन्त सामर्थ्य सहित प्रगट हुई । वह ज्ञानज्योति ऐसी है कि [क वलिततमः] जिसने अज्ञानरूपी अंधकार का ग्रास कर लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूप अंधकार का नाश कर दिया है, [हेला-उन्मिलत्] जो लीलामात्र से विकसित होती जाती है और [परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि] जिसने परम कला अर्थात् केवलज्ञान के साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है