झाणग्गिदड्ढकम्मे णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे ।
णमिऊण परमसिद्धे सुतच्चसारं पवोच्छामि ॥1॥
ध्यानाग्निदग्धकर्मकान् निर्मलसुविशुद्धलब्धसद्भावान् ।
नत्वा परमसिद्धान् सुतत्त्वसारं प्रवक्ष्यामि ॥1॥
ध्यान दहन विधि-काठ दहि, अमल सुद्ध लहि भाव ।
परम जोतिपद वंदिकै, कहूँ तत्त्वकौ राव ॥1॥
अन्वयार्थ : [झाणग्गिदड्ढकम्मे] आत्मध्यानरूप अग्नि से ज्ञानावरणादि कर्मों को दग्ध करनेवाले, [णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे] निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले [परमसिद्ध] परम सिद्ध परमात्माओं को [णमिऊण] नमस्कार करके [सुतच्चसारं] श्रेष्ठ तत्त्वसार को [मैं देवसेन] [पवोच्छामि] कहूँगा।