अज्ज वि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुर-लोए ।
तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं ॥15॥
आत्मज्ञान दृग चारितवान, आतम ध्याय लहै सुरथान ।
मनुज होय पावै निरवान, तातैं यहां मुकति मग जान ॥15॥
अन्वयार्थ : [अज्जवि] आज भी [तिरयणवंता] रत्नत्रय-धारक मनुष्य [अप्पा] आत्मा का [झाऊण] ध्यान कर [सुरलोयं] स्वर्गलोक को [जंति] जाते हैं, और [तत्थ] वहां से [चुया] च्युत होकर [मणुयत्ते] उत्तम मनुष्यकुल में [उप्पज्जिय] उत्पन्न हो [णिव्वाणं] निर्वाण को [लहहि] प्राप्त करते हैं ।