संका-कंखा-गहिया विसय-पसत्ता सुमग्ग-पब्भट्ठा ।
एवं भणंति केई ण हु कालो होइ झाणस्स ॥14॥
संकितचित्त सुमारग नाहिं, विषैलीन वांछा उरमाहिं ।
ऐसैं आप्त कहैं निरवान, पंचमकाल विषैं नहिं जान ॥14॥
अन्वयार्थ : [संका-कंखागहिया] शंकाशील और आकांक्षावाले, [विसयपसत्ता] विषयों में आसक्त [सुमग्गपन्भट्ठा] और मोक्ष के सुमार्ग से प्रभ्रष्ट [केई] कितने ही पुरुष [एवं] इस प्रकार [भणंति] कहते हैं कि [कालो] यह काल [झाणस्स] ध्यान के योग्य [ण है] नहीं [होइ] है ।