पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमाणुविशेषोक्ति रियम् । यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिक-भावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्त म्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणुः । अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागीहे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि । (कलश--अनुष्टुभ्) अप्यात्मनि स्थितिं बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मनः । सिद्धास्ते किं न तिष्ठंति स्वस्वरूपे चिदात्मनि ॥४०॥ यह, परमाणु का विशेष कथन है । जिसप्रकार सहज परम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करनेवाले सहज निश्चयनय की अपेक्षा से नित्य और अनित्य निगोद से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जीवों का निज स्वरूप से अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचमभाव की अपेक्षा से परमाणु-द्रव्य का परम-स्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है और स्वयं ही अपना अन्त भी है । जो ऐसा होने से, इन्द्रिय-ज्ञान-गोचर न होने से और पवन, अग्नि इत्यादि द्वारा नाश को प्राप्त न होने से, अविभागी है उसे, हे शिष्य ! तू परमाणु जान । (कलश--दोहा)
जड़ात्मक पुद्गल की स्थिति स्वयं में (पुद्गल में ही) जानकर (अर्थात् जड़स्वरूप पुद्गल पुद्गल के निज स्वरूप में ही रहते हैं ऐसा जानकर), वे सिद्ध-भगवन्त अपने चैतन्यात्मक स्वरूप में क्यों नहीं रहेंगे ?
जब जड़ पुद्गल स्वयं में सदा रहे जयवंत । सिद्धजीव चैतन्य में क्यों न रहे जयवंत ॥४०॥ |