पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
कारणकार्यपरमाणुद्रव्यस्वरूपाख्यानमेतत् । पृथिव्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः; तेषां यो हेतुः स कारणपरमाणुः । स एव जघन्य-परमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः । स्निग्धरूक्षगुणा-नामनन्तत्वस्योपरि द्वाभ्याम् चतुर्भिः समबन्धः त्रिभिः पञ्चभिर्विषमबन्धः । अयमुत्कृष्ट-परमाणुः । गलतां पुद्गलद्रव्याणाम् अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणुः । अणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्टभेदैः । तस्य परमाणुद्रव्यस्य स्वरूपस्थितत्वात्विभावाभावात् परमस्वभाव इति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे - णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झंति हि आदिपरिहीणा ॥ णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि । लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ॥ तथा हि - (कलश--अनुष्टुभ्) स्कन्धैस्तैः षट्प्रकारैः किं चतुर्भिरणुभिर्मम । आत्मानमक्षयं शुद्धं भावयामि मुहुर्मुहुः ॥३9॥ यह, कारण-परमाणु द्रव्य और कार्य-परमाणु द्रव्य के स्वरूप का कथन है ।
परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो ।
परमाणु-परिणाम, स्निग्ध हों या रूक्ष हों, सम अंशवाले हों याविषम अंशवाले हों, यदि समान से दो अधिक अंशवाले हों तो बँधते हैं; जघन्य अंशवाला नहीं बँधता । स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध (अथवा रूक्ष) परमाणु के साथ बन्ध का अनुभव करता है; अथवा रूक्षता से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ जुड़ा हुआ बँधता है ।अर रूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो ॥प्र.सा.१६५॥ दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हों यदि चार तो । हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ॥प्र.सा.१६६॥ और (कलश--वीर)
उन छह प्रकार के स्कंधों या चार प्रकार के अणुओं के साथ मुझे क्या है ? मैं तो अक्षय शुद्ध आत्मा को पुनः पुनः भाता हूँ ।
छह प्रकार के खंध और हैं चार भेद परमाणु के । हमको क्या लेना-देना इन परमाणु-स्कंधों से ॥ अक्षय सुखनिधि शुद्धातम जो उसे नित्य हम भाते हैं । उसमें ही अपनापन करके बार-बार हम ध्याते हैं ॥३९॥ |