पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
धर्माधर्माकाशानां संक्षेपोक्तिरियम् । अयं धर्मास्तिकायः स्वयं गतिक्रियारहितः दीर्घिकोदकवत् । स्वभावगतिक्रिया-परिणतस्यायोगिनः पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्य भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षट्कापक्रम-विमुक्तस्य मुक्ति वामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशा-वासपंचविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतुः धर्मः, अपि च षट्कापक्रम-युक्तानां संसारिणां विभावगतिक्रियाहेतुश्च । यथोदकं पाठीनानां गमनकारणं तथा तेषांजीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः । सोऽयममूर्तः अष्टस्पर्शनविनिर्मुक्त: वर्णरसपंचकगंध-द्वितयविनिर्मुक्तश्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधारः लोकमात्राकारः अखण्डैकपदार्थः । सहभुवोःगुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोर्धर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणाः शुद्धपर्याया भवन्ति ।अधर्मद्रव्यस्य स्थितिहेतुर्विशेषगुणः । अस्यैव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति ।आकाशस्यावकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः । इतरे धर्माधर्मयोर्गुणाः स्वस्यापि सद्रशा इत्यर्थः ।लोकाकाशधर्माधर्माणां समानप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति । (कलश--मालिनी) इह गमननिमित्तं यत्स्थितेः कारणं वा यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम् । तदखिलमवलोक्य द्रव्यरूपेण सम्यक् प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ॥४६॥ यह, धर्म-अधर्म-आकाश का संक्षिप्त कथन है । यह धर्मास्तिकाय, बावड़ी के पानी की भाँति, स्वयं गति-क्रिया रहित है । मात्र (अ, इ,उ, ऋ, लृ - ऐसे) पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितनी जिनकी स्थिति है, जो 'सिद्ध' नाम के योग्य हैं, जो छह अपक्रम से विमुक्त हैं, जो मुक्तिरूपी सुलोचना के लोचन का विषय हैं (अर्थात् जिन्हें मुक्तिरूपी सुन्दरी प्रेम से निहारती है ), जो त्रिलोकरूपी शिखरी (पर्वत) के शिखर हैं, जिन्होंने समस्त क्लेश के घररूप पंचविध संसार को (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप पाँच प्रकार के संसार को) दूर किया है और जो पंचमगति की सीमा पर हैं, ऐसे अयोगी भगवान को स्वभाव गति-क्रियारूप से परिणमित होने पर स्वभाव गति-क्रिया का हेतु धर्म है । और छह अपक्रम से युक्त ऐसे संसारियों को वह (धर्म) विभाव गति-क्रिया का हेतु है । जिसप्रकार पानी मछलियों को गमन का कारण है, उसीप्रकार वह धर्म उन जीव-पुद्गलों को गमन का कारण (निमित्त) है । वह धर्म अमूर्त, आठ स्पर्श रहित, तथा पाँच वर्ण, पाँच रस और दो गंध रहित, अगुरुलघुत्वादि गुणों के आधारभूत, लोकमात्र आकारवाला (लोकप्रमाण आकारवाला), अखण्ड एक पदार्थ है । 'सहभावी गुण हैं और क्रमवर्ती पर्यायें हैं' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से गति के हेतुभूत इस धर्म-द्रव्य को शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं । अधर्म-द्रव्य का विशेषगुण स्थिति-हेतुत्व है । इस अधर्म-द्रव्य के (शेष) गुण-पर्यायों जैसे उस धर्मास्तिकाय के (शेष) सर्व गुण-पर्याय होते हैं । आकाश का, अवकाशदानरूप लक्षण ही विशेष-गुण है । धर्म और अधर्म के शेष गुण आकाश के शेष गुणों जैसे भी हैं । इसप्रकार (इस गाथा का) अर्थ है । (यहाँ ऐसा ध्यानमें रखना कि) लोकाकाश, धर्म और अधर्म समान प्रमाणवाले होने से कहीं अलोकाकाश को न्यूनता - छोटापन नहीं है (अलोकाकाश तो अनन्त है) । (कलश--दोहा)
जो (द्रव्य) गमन का निमित्त है, जो (द्रव्य) स्थिति का कारण है, और दूसरा जो (द्रव्य) सर्व को स्थान देने में प्रवीण है, उन सबको सम्यक् द्रव्यरूप से अवलोककर (यथार्थतः स्वतंत्र द्रव्य रूप से समझकर) भव्य-समूह सर्वदा निज तत्त्व में प्रवेश करो ।
धर्माधर्माकाश को द्रव्यरूप से जान । भव्य सदा निज में बसो ये ही काम महान ॥४६॥ |