पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारकालस्वरूपविविधविकल्पकथनमिदम् । एकस्मिन्नभःप्रदेशे यः परमाणुस्तिष्ठति तमन्यः परमाणुर्मन्दचलनाल्लंघयति स समयोव्यवहारकालः । ताद्रशैरसंख्यातसमयैः निमिषः, अथवा नयनपुटघटनायत्तो निमेषः । निमेषाष्टकैः काष्ठा । षोडशभिः काष्ठाभिः कला । द्वात्रिंशत्कलाभिर्घटिका ।षष्टिनालिकमहोरात्रम् । त्रिंशदहोरात्रैर्मासः । द्वाभ्याम् मासाभ्याम् ऋतुः । ऋतु-भिस्त्रिभिरयनम् । अयनद्वयेन संवत्सरः । इत्यावल्यादिव्यवहारकालक्रमः । इत्थंसमयावलिभेदेन द्विधा भवति, अतीतानागतवर्तमानभेदात् त्रिधा वा । अतीतकालप्रपंचो-ऽयमुच्यते — अतीतसिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकालः सकालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सद्रशत्वादनन्तः । अनागतकालो-ऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तैः सद्रश इत्यामुक्ते : मुक्ते : सकाशादित्यर्थः । तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये - समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती । मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) समयनिमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद् दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एषः । न च भवति फलं मे तेन कालेन किंचिद् निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय ॥४७॥ यह, व्यवहारकाल के स्वरूप का और उसके विविध भेदों का कथन है । एक आकाश-प्रदेश में जो परमाणु स्थित हो उसे दूसरा परमाणु मन्दगति से लाँघे उतना काल वह समयरूप व्यवहारकाल है । ऐसे असंख्य समयों का निमिष होता है, अथवा आँख मिंचे उतना काल वह निमेष है । आठ निमेष की काष्ठा होती है । सोलह काष्ठा की कला, बत्तीस कला की घड़ी, साँठ घड़ी का अहोरात्र, तीस अहोरात्र का मास, दो मास की ऋतु, तीन ऋतु का अयन और दो अयन का वर्ष होता है । ऐसे आवलि आदि व्यवहार-काल का क्रम है । इसप्रकार व्यवहार-काल समय और आवलि के भेद से दो प्रकार का है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है । यह (निम्नोक्तानुसार), अतीत काल का विस्तार कहा जाता है : अतीत सिद्धों को सिद्ध-पर्याय के प्रादुर्भाव (प्रगट, उत्पन्न होना) समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहार-काल वह, उन्हें संसार-दशा में जितने संस्थान बीत गये उनके जितना (सिद्ध-भगवान को अनन्त शरीर बीत गये हैं; उन शरीरों की अपेक्षा संख्यातगुनी आवलियाँ बीत गई हैं । इसलिये अतीत शरीर भी अनन्त हैं और अतीत काल भी अनन्त है । अतीत शरीरों की अपेक्षा अतीत आवलियाँ संख्यातगुनी होने पर भी दोनों अनन्त होने से दोनों को अनन्तपने की अपेक्षा से समान कहा है) होने से अनन्त है । (अनागत सिद्धों को मुक्ति होने तक का) अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जो मुक्ति-पर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है । ऐसा (इस गाथा का) अर्थ है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री पञ्चास्तिकाय समय में (२४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- समय-निमिष-कला-घड़ी दिनरात-मास-ऋतु-अयन ।
समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष - इसप्रकार पराश्रित काल (जिसमें 'पर' की अपेक्षा आती है ऐसा व्यवहारकाल) है ।वर्षादि का व्यवहार जो वह पराश्रित जिनवर कहा ॥पं.का.२४॥ और (कलश--दोहा)
समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिन-रात आदि भेदों से यह काल (व्यवहारकाल) उत्पन्न होता है; परन्तु शुद्ध एक निज निरुपम तत्त्व को छोड़कर, उस काल से मुझे कुछ फल नहीं है ।
समय निमिष काष्ठा कला घड़ी आदि के भेद । इनसे उपजे काल यह रंच नहीं सन्देह ॥ पर इससे क्या लाभ है शुद्ध निरंजन एक । अनुपम अद्भुत आतमा में ही रहूँ हमेश ॥47॥ |