पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र कालद्रव्यमन्तरेण पूर्वोक्त द्रव्याण्येव पंचास्तिकाया भवंतीत्युक्तम् । इह हि द्वितीयादिप्रदेशरहितः कालः, 'समओ अप्पदेसो' इति वचनात् । अस्य हिद्रव्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां कायत्वमस्त्येव । बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः । काया इव कायाः । पंचास्तिकायाः । अस्तित्वं नाम सत्ता । सा किंविशिष्टा ? सप्रतिपक्षा, अवान्तरसत्ता महासत्तेति । तत्र समस्तवस्तुविस्तरव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैकरूपव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । अनन्तपर्यायव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । अस्तीत्यस्य भावःअस्तित्वम् । अनेन अस्तित्वेन कायत्वेन सनाथाः पंचास्तिकायाः । कालद्रव्यस्यास्तित्वमेव, नकायत्वं, काया इव बहुप्रदेशाभावादिति । (कलश--आर्या) इति जिनमार्गाम्भोधेरुद्धृता पूर्वसूरिभिः प्रीत्या । षड्द्रव्यरत्नमाला कंठाभरणाय भव्यानाम् ॥५१॥ इस गाथा में काल-द्रव्य के अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय हैं, ऐसा कहा है । यहाँ (इस विश्व में) काल द्वितीयादि प्रदेश रहित (अर्थात् एक से अधिक प्रदेश-रहित) है, क्योंकि 'समओ अप्पदेसो (काल अप्रदेशी है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन है । इसे द्रव्यत्व ही है, शेष पाँच को कायत्व (भी) है ही । बहुप्रदेशों के समूहवाला हो वह 'काय' है । 'काय' काय जैसे (शरीर जैसे अर्थात् बहु-प्रदेशों वाले) होते हैं । अस्तिकाय पाँच हैं । अस्तित्व अर्थात् सत्ता । वह कैसी है ? महासत्ता और अवान्तर-सत्ता - ऐसी सप्रतिपक्ष है । वहाँ,
(कलश--हरिगीत)
इसप्रकार जिनमार्गरूपी रत्नाकर में से पूर्वाचार्यों ने प्रीति-पूर्वक षट्द्रव्यरूपी रत्नों की माला भव्यों के कण्ठाभरण के हेतु बाहर निकाली है ।
आगम उदधि से सूरि ने जिनमार्ग की षट्द्रव्यमय । यह रत्नमाला भव्यकण्ठाभरण गूँथी प्रीति से ॥५१॥ |