पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो । कालादिशुद्धामूर्ताचेतनद्रव्याणां स्वभावगुणपर्यायाख्यानमेतत् ।इह हि मुख्यकालद्रव्यं जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां पर्यायपरिणतिहेतुत्वात् परि-वर्तनलिङ्गमित्युक्त म् । अथ धर्माधर्माकाशकालानां स्वजातीयविजातीयबंधसम्बन्धाभावात्विभावगुणपर्यायाः न भवंति, अपि तु स्वभावगुणपर्याया भवंतीत्यर्थः । ते गुणपर्यायाः पूर्वंप्रतिपादिताः, अत एवात्र संक्षेपतः सूचिता इति । (कलश--मालिनी) इति विरचितमुच्चैर्द्रव्यषट्कस्य भास्वद् विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् । तदिह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोदं भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ॥५०॥ यह, कालादि शुद्ध अमूर्त अचेतन द्रव्यों के स्वभाव-गुण-पर्यायों का कथन है । मुख्य काल-द्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश की (पाँचअस्तिकायों की) पर्याय-परिणति का हेतु होने से उसका लिंग परिवर्तन है (अर्थात् काल-द्रव्य का लक्षण वर्तना हेतुत्व है) ऐसा यहाँ कहा है । अब (दूसरी बात यह कि), धर्म, अधर्म, आकाश और काल को स्वजातीय या विजातीय बन्ध का सम्बन्ध न होने से उन्हें विभाव-गुण-पर्यायें नहीं होतीं, परन्तु स्वभाव-गुण-पर्यायें होतीं हैं, ऐसा अर्थ है । उन स्वभाव-गुण-पर्यायों का पहले प्रतिपादन किया गया है इसीलिये यहाँ संक्षेप से सूचन किया गया है । (कलश--त्रिभंगी)
इसप्रकार भव्यों के कर्णों को अमृत ऐसा जो छह द्रव्यों का अति रम्य दैदीप्यमान (स्पष्ट) विवरण विस्तार से किया गया, वह जिनमुनियों के चित्त को प्रमोद देनेवाला षट्द्रव्य-विवरण भव्य जीव को सर्वदा भव-विमुक्ति का कारण हो ।
जय भव भय भंजन, मुनि मन रंजन, भव्यजनों को हितकारी । यह षट्द्रव्यों का, विशद विवेचन, सबको हो मंगलकारी ॥५०॥ |