+ हेय और उपादेय तत्त्व -
जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा ।
कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो ॥38॥
जीवादिबहिस्तत्त्वं हेयमुपादेयमात्मनः आत्मा ।
कर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैर्व्यतिरिक्त: ॥३८॥
जीवादि जो बहितत्त्व हैं, वे हेय हैं कर्मोपधिज ।
पर्याय से निरपेक्ष आतमराम ही आदेय है ॥३८॥
अन्वयार्थ : [जीवादिबहिस्तत्त्वं] जीवादि बाह्यतत्त्व [हेयम्] हेय हैं; [कर्म्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैः] कर्मोपाधि-जनित गुण-पर्यायों से [व्यतिरिक्तः] व्यतिरिक्त [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] आत्मा को [उपादेयम्] उपादेय है ।
Meaning : The external principles, soul, etc., should be renounced. One's own soul, absolutely free from all the attributes and modifications, caused by the impurity of Karmas should be realised.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथेदानीं शुद्धभावाधिकार उच्यते ।

हेयोपादेयतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।जीवादिसप्ततत्त्वजातं परद्रव्यत्वान्न ह्युपादेयम् । आत्मनः सहजवैराग्यप्रासाद-शिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिन-योगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद्द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनितविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध-
सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा । अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतंनिजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति ।

(कलश--मालिनी)
जयति समयसारः सर्वतत्त्वैकसारः
सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः ।
दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतारः
सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः ॥५४॥



अब शुद्धभाव अधिकार कहा जाता है ।

यह, हेय और उपादेय तत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

जीवादि सात तत्त्वों का समूह पर-द्रव्य होने के कारण वास्तव में उपादेय नहीं है ।
  • सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का जो शिखामणि है,
  • पर-द्रव्य से जो पराङ्मुख है,
  • पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है,
  • जो परम जिनयोगीश्वर है,
  • स्व-द्रव्य में जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है
- ऐसे आत्मा को 'आत्मा' वास्तव में उपादेय है । औदयिक आदि चार भावान्तरों को अगोचर होने से जो (कारण-परमात्मा) द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म, और नो-कर्म रूप उपाधि से जनित विभाव-गुण-पर्यायों रहित है, तथा अनादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिकभाव जिसका स्वभाव है, ऐसा कारण-परमात्मा वह वास्तव में 'आत्मा' है । अति - आसन्न भव्य जीवों को ऐसे निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है ।

(कलश--रोला)
सकलविलय से दूर पूर सुख सागर का जो ।
क्लेशोदधि से पार शमित दुर्वारमार जो ॥
शुद्धज्ञान अवतार दुरित तरु का कुठार जो ।
समयसार जयवंत तत्त्व का एक सार जो ॥५४॥
सर्व तत्त्वों में जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुर्वार काम को नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्ष को छेदनेवाला कुठार है, जो शुद्ध-ज्ञान का अवतार है, जो सुख-सागर की बाढ़ है और जो क्लेशोदधि का किनारा है, वह समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवन्त वर्तता है ॥