पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथेदानीं शुद्धभावाधिकार उच्यते । हेयोपादेयतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।जीवादिसप्ततत्त्वजातं परद्रव्यत्वान्न ह्युपादेयम् । आत्मनः सहजवैराग्यप्रासाद-शिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिन-योगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद्द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनितविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध- सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा । अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतंनिजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति । (कलश--मालिनी) जयति समयसारः सर्वतत्त्वैकसारः सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः । दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतारः सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः ॥५४॥ अब शुद्धभाव अधिकार कहा जाता है । यह, हेय और उपादेय तत्त्व के स्वरूप का कथन है । जीवादि सात तत्त्वों का समूह पर-द्रव्य होने के कारण वास्तव में उपादेय नहीं है ।
(कलश--रोला)
सर्व तत्त्वों में जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुर्वार काम को नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्ष को छेदनेवाला कुठार है, जो शुद्ध-ज्ञान का अवतार है, जो सुख-सागर की बाढ़ है और जो क्लेशोदधि का किनारा है, वह समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवन्त वर्तता है ॥
सकलविलय से दूर पूर सुख सागर का जो । क्लेशोदधि से पार शमित दुर्वारमार जो ॥ शुद्धज्ञान अवतार दुरित तरु का कुठार जो । समयसार जयवंत तत्त्व का एक सार जो ॥५४॥ |