पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वभावस्थानानि ।प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खलु शुभ-परिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान्न संसारसुखं, संसारसुखस्याभावान्न हर्षस्थानानि । नचाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति । (कलश--शार्दूलविक्रीडित) प्रीत्यप्रीतिविमुक्त शाश्वतपदे निःशेषतोऽन्तर्मुख- निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्बिम्बाकृतावात्मनि । चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषे प्रेक्षावतां गोचरे बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः ॥५५॥ यह, निर्विकल्प तत्त्व के स्वरूप का कथन है । त्रिकाल-निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे शुद्ध जीवास्तिकाय को
(कलश--रोला)
जो प्रीति-अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अन्तर्मुख और निर्भेदरूप से प्रकाशमान ऐसे सुख का बना हुआ है, नभ-मण्डल समान आकृतिवाला (निराकार-अरूपी) है, चैतन्यामृत के पूर से भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवन्त चतुर पुरुषों को गोचर है, ऐसे आत्मा में तू रुचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसार के सुख की वांछा क्यों करता है ?
चिदानन्द से भरा हुआ नभ सम अकृत जो । राग-द्वेष से रहित एक अविनाशी पद है ॥ चैतन्यामृत पूर चतुर पुरुषों के गोचर । आतम क्यों न रुचे करे भोगों की वांछा ॥५५॥ |