पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रापि शुद्धजीवस्वरूपमुक्तम् । बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्यागलक्षणत्वान्निर्ग्रन्थः । सकलमोहरागद्वेषात्मक-चेतनकर्माभावान्नीरागः । निदानमायामिथ्याशल्यत्रयाभावान्निःशल्यः । शुद्धनिश्चयनयेन शुद्ध-जीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकर्माभावात् सकलदोषनिर्मुक्त : । शुद्धनिश्चयनयेन निजपरम-तत्त्वेऽपि वांछाभावान्निःकामः । निश्चयनयेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तपरद्रव्यपरिणतेरभावान्निः-क्रोधः । निश्चयनयेन सदा परमसमरसीभावात्मकत्वान्निर्मानः । निश्चयनयेन निःशेषतोऽन्तर्मुख-त्वान्निर्मदः । उक्त प्रकारविशुद्धसहजसिद्धनित्यनिरावरणनिजकारणसमयसारस्वरूपमुपादेयमिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः- (कलश--मन्दाक्रांता) इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेद- भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मूर्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ॥ तथा हि - (कलश--मन्दाक्रांता) ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तसंघातकात्मा नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्त : । स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मूलं यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम् ॥६९॥ यहाँ (इस गाथा में) भी शुद्ध जीव का स्वरूप कहा है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें ८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--मनहरण कवित्त)
इसप्रकार पर-परिणति के उच्छेद द्वारा (अर्थात् पर-द्रव्यरूप परिणमन के नाश द्वारा) तथा कर्ता, कर्म आदि भेद होने की जो भ्रान्ति उसके भी नाश द्वारा अन्त में जिसने शुद्ध आत्म-तत्त्व को उपलब्ध किया है, ऐसा यह आत्मा, चैतन्यमात्र रूप विशद (निर्मल) तेज में लीन रहता हुआ, अपनी सहज (स्वाभाविक) महिमा के प्रकाशमानरूप से सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर । करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ॥ इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर । कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ॥ ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल । सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया ॥ आपनी ही महिमामय परकाशमान । रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ॥१३॥ और (कलश--मनहरण कवित्त)
जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार-समूह का नाश किया है, जो नित्य आनन्द आदि अतुल-महिमा का धारण करनेवाला है, जो सर्वदा अमूर्त है, जो अपने में अत्यन्त अविचलता द्वारा उत्तम-शील का मूल है, उस भव-भय को हरनेवाले मोक्ष-लक्ष्मी के ऐश्वर्यवान स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ ।
ज्ञानज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार का । नाशक ध्रुव नित्य आनन्द का है धारक जो ॥ अमूरतिक आतमा अत्यन्त अविचल । स्वयं में ही उत्तम सुशील का है कारक जो ॥ भवभयहरण पति मोक्षलक्ष्मी का अति । ऐश्वर्यवान नित्य आतम विलासी जो ॥ करता हूँ वंदना मैं आत्मदेव की सदा । अलख अखण्ड पिण्ड चण्ड अविनाशी जो ॥६९॥ |