पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं नसमस्तीत्युक्तम् । निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचकं, गन्धद्वितयं, स्पर्शाष्टकं, स्त्रीपुंनपुंसकादिविजातीय-विभावव्यंजनपर्यायाः, कुब्जादिसंस्थानानि, वज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यन्ते पुद्गलानामेव, न जीवानाम् । संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्तस्य कर्मफलचेतनाभवति, त्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति । कार्यपरमात्मनः कारण-परमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति । अत एव कार्यसमयसारस्य वा कारणसमयसारस्य वाशुद्धज्ञानचेतना सहजफ लरूपा भवति । अतः सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानंसंसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपादेयमिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति । तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ — (कलश--मन्दाक्रांता) आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः साऽपि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥ तथा हि — (कलश--मालिनी) असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद् रहितमखिलमूर्तद्रव्यजालं विचित्रम् । इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ॥७०॥ यहाँ (इन दो गाथाओं में) परम-स्वभावभूत ऐसा जो कारण-परमात्मा का स्वरूप उसे समस्त पौद्गलिक विकार-समूह नहीं है ऐसा कहा है । निश्चय से पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, स्त्री-पुरुष-नपुंसकादि विजातीय विभाव-व्यंजन-पर्यायें, कुब्जादि संस्थान, वज्रर्षभनाराचादि संहनन पुद्गलों को ही हैं, जीवों को नहीं हैं । संसार-दशा में स्थावर नाम-कर्म-युक्त संसारी जीव को कर्मफल-चेतना होती है, त्रस नाम-कर्म-युक्त संसारी जीव को कार्य सहित कर्मफल-चेतना होती है । कार्य-परमात्मा और कारण-परमात्मा को शुद्ध-ज्ञान-चेतना होती है । इसी से कार्य-समयसार अथवा कारण-समयसार को सहज फलरूप शुद्ध-ज्ञान-चेतना होती है । इसलिये, सहजशुद्ध-ज्ञान-चेतनास्वरूप निज कारण-परमात्मा संसारावस्था में या मुक्तावस्था में सर्वदा एकरूप होने से उपादेय है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान । इसप्रकार एकत्वसप्तति में (श्रीपद्मनन्दी - आचार्यदेवकृत पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामक शास्त्र में एकत्वसप्तति नामक अधिकार में ७९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
मेरा ऐसा मंतव्य है कि -- आत्मा पृथक् है और उसके पीछे-पीछे जानेवाला कर्म पृथक् है; आत्मा और कर्म की अति निकटता से जो विकृति होती है वह भी उसीप्रकार (आत्मा से) भिन्न है; और काल-क्षेत्रादि जो हैं वे भी (आत्मा से) पृथक् हैं । निज-निज गुणकला से अलंकृत यह सब पृथक्-पृथक् हैं (अर्थात् अपने-अपने गुणों तथा पर्यायों से युक्त सर्व द्रव्य अत्यन्त भिन्न-भिन्न हैं ) ।जड़-कर्मों से भिन्न आतमा होता है ज्यों । भाव-कर्म से भिन्न आतमा होता है त्यों ॥ सभी स्वयं के गुण-पर्यायों से अभिन्न हैं । पर-द्रव्यों से भिन्न सदा सब ही होते हैं ॥१४॥ और - (कलश--रोला)
'बन्ध हो न हो (अर्थात् बन्धावस्था में या मोक्षावस्था में), समस्त-विचित्र मूर्त-द्रव्यजाल (अनेकविध मूर्त-द्रव्यों का समूह) शुद्ध जीव के रूप से व्यतिरिक्त है' ऐसा जिनदेव का शुद्ध वचन बुधपुरुषों को कहते हैं । इस भुवनविदित को (इस जगत-प्रसिद्ध सत्य को), हे भव्य ! तू सदा जान ।
अरे बंध हो अथवा न हो शुद्धजीव तो । सदा भिन्न ही विविध मूर्त द्रव्यों से जानो ॥ बुधपुरुषों से कहे हुए जिनदेव वचन इस । परमसत्य को भव्य आतमा तुम पहिचानो ॥७०॥ |