पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अयं च कार्यकारणसमयसारयोर्विशेषाभावोपन्यासः । निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकादिपर्यायपरित्याग-स्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितसहजदर्शनादिकारणशुद्धस्वरूपपरिच्छित्ति- समर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादि- विभावस्वभावानामभावान्निर्मलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्रे भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अमी केनचिन्नयबलेन संसारिजीवाः शुद्धा इति । (कलश--शार्दूलविक्रीडित) शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्याद्रशि प्रत्यहं शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्द्रशि प्रत्यहम् । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्द्रक् स्वयं सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ॥७२॥ और यह, कार्य-समयसार तथा कारण-समयसार में अन्तर न होने का कथन है ।
(कलश--हरिगीत)
शुद्ध-अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा (ऐसी मान्यता होती है कि) कारण-तत्त्व और कार्य-तत्त्व दोनों शुद्ध हैं । इसप्रकार परमागम के अतुल अर्थ को सारासार के विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं ।
शुद्ध है यह आतमा अथवा अशुद्ध इसे कहें । अज्ञानि मिथ्यादृष्टि के ऐसे विकल्प सदा रहें ॥ कार्य-कारण शुद्ध सारासारग्राही बुद्धि से । जानते सद्दृष्टि उनकी वंदना हम नित करें ॥७२॥ |