+ निश्चय और व्यवहारनय की उपादेयता -
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु ।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥49॥
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु ।
सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ॥४९॥
व्यवहारनय से कहे हैं ये भाव सब इस जीव के ।
पर शुद्धनय से सिद्धसम हैं जीव संसारी सभी ॥४९॥
अन्वयार्थ : [एते] यह (पूर्वोक्त) [सर्वे भावाः] सब भाव [खलु] वास्तव में [व्यवहारनयं प्रतीत्य] व्यवहारनय का आश्रय करके [भणिताः] (संसारी जीवों में विद्यमान) कहे गये हैं; [शुद्धनयात्] शुद्धनय से [संसृतौ] संसार में रहने वाले [सर्वे जीवाः] सर्व जीव [सिद्धस्वभावाः] सिद्ध-स्वभावी हैं ।
Meaning : From the practical point of view, all mundane souls have been described as possessing all the aforesaid conditions ; but from the pure, real point of view they also (are) of the same nature as liberated souls.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् ।

ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेनविद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतांसिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सद्रशाः शुद्धनयादेशादिति ।

तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः -
(कलश--मालिनी)
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः ।
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ॥
तथा हि -
(कलश--स्वागता)
शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ
संसृतावपि च नास्ति विशेषः ।
एवमेव खलु तत्त्वविचारे
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ॥७३॥


यह, निश्चयनय और व्यवहारनय की उपादेयता का प्रकाशन (कथन) है ।

पहले जो विभाव-पर्यायें 'विद्यमान नहीं हैं ' ऐसी प्रतिपादित की गई हैं, वे सब विभाव-पर्यायें वास्तव में व्यवहारनय के कथन से विद्यमान हैं । और जो (व्यवहारनय के कथन से) चार विभाव-भावरूप परिणत होने से संसार में भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुण-पर्यायों द्वारा सिद्ध-भगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनय के कथन से औदयिकादि विभाव-भावोंवाले होने से संसारी हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुणों तथा शुद्ध पर्यायों वाले होने से सिद्ध सदृश हैं ) । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों ।
उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ॥
पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को ।
जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥१५॥
यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिका में जिन्होंने पैर रखा है ऐसे जीवों को, अरे रे ! हस्तावलम्बरूप भले हो, तथापि जो जीव चैतन्य-चमत्कारमात्र, पर से रहित ऐसे परम पदार्थ को अन्तरंग में देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है ।

और

(कलश--सोरठा)
अन्तर नहिं है रंच, संसारी अर सिद्ध में ।
बतलाते यह मर्म, शुद्धतत्त्व के रसिकजन ॥७३॥
'शुद्ध निश्चयनय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है;' ऐसा ही वास्तव में, तत्त्व विचारने पर (परमार्थ वस्तु-स्वरूप का विचार अथवा निरूपण करने पर), शुद्ध तत्त्व के रसिक पुरुष कहते हैं ।