पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् । ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेनविद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतांसिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सद्रशाः शुद्धनयादेशादिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः - (कलश--मालिनी) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या- मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ॥ तथा हि - (कलश--स्वागता) शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ संसृतावपि च नास्ति विशेषः । एवमेव खलु तत्त्वविचारे शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ॥७३॥ यह, निश्चयनय और व्यवहारनय की उपादेयता का प्रकाशन (कथन) है । पहले जो विभाव-पर्यायें 'विद्यमान नहीं हैं ' ऐसी प्रतिपादित की गई हैं, वे सब विभाव-पर्यायें वास्तव में व्यवहारनय के कथन से विद्यमान हैं । और जो (व्यवहारनय के कथन से) चार विभाव-भावरूप परिणत होने से संसार में भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुण-पर्यायों द्वारा सिद्ध-भगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनय के कथन से औदयिकादि विभाव-भावोंवाले होने से संसारी हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुणों तथा शुद्ध पर्यायों वाले होने से सिद्ध सदृश हैं ) । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिका में जिन्होंने पैर रखा है ऐसे जीवों को, अरे रे ! हस्तावलम्बरूप भले हो, तथापि जो जीव चैतन्य-चमत्कारमात्र, पर से रहित ऐसे परम पदार्थ को अन्तरंग में देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है ।ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों । उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ॥ पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को । जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥१५॥ और (कलश--सोरठा)
'शुद्ध निश्चयनय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है;' ऐसा ही वास्तव में, तत्त्व विचारने पर (परमार्थ वस्तु-स्वरूप का विचार अथवा निरूपण करने पर), शुद्ध तत्त्व के रसिक पुरुष कहते हैं ।
अन्तर नहिं है रंच, संसारी अर सिद्ध में । बतलाते यह मर्म, शुद्धतत्त्व के रसिकजन ॥७३॥ |