+ भेदविज्ञान द्वारा निश्चय-चारित्र -
एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ॥82॥
ईद्रग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् ।
तद्दृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ॥८२॥
इस भेद के अभ्यास से माध्यस्थ हो चारित लहे ।
चारित्रदृढ़ता हेतु हम प्रतिक्रमण आदिक अब कहें ॥८२॥
अन्वयार्थ : [इद्रग्भेदाभ्यासे] ऐसा भेद-अभ्यास होने पर [मध्यस्थः] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रम् भवति] उससे चारित्र होता है । [तद्द्रढीकरणनिमित्तं] उसे (चारित्रको) दृढ़ करने के लिये [प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि] मैं प्रतिक्रमणादि कहूँगा ।
Meaning : By practising self-analysis, (a soul) becomes equanimous and thus (gains) Right Conduct.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्तम् ।

पूर्वोक्त पंचरत्नांचितार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदाभ्यासेसति, तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यत एव मध्यस्थाः, तेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति । तस्य चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादि-निश्चयक्रिया निगद्यते । अतीतदोषपरिहारार्थं यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम् ।आदिशब्देन प्रत्याख्यानादीनां संभवश्चोच्यत इति ।

तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः -
(कलश--अनुष्टुभ्)
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥
तथा हि -
(कलश--मालिनी)
इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेदभावे
स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्त मोहः ।
शमजलनिधिपूरक्षालितांहःकलंकः
स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः ॥११०॥


यहाँ, भेदविज्ञान द्वारा क्रम से निश्चय-चारित्र होता है ऐसा कहा है ।

पूर्वोक्त पंचरत्नों से शोभित अर्थ-परिज्ञान (पदार्थों के ज्ञान) द्वारा पंचम गति की प्राप्ति के हेतुभूत ऐसा जीव का और कर्म-पुद्गल का भेद-अभ्यास होने पर, उसी में जो मुमुक्षु सर्वदासंस्थित रहते हैं, वे उस (सतत भेदाभ्यास) द्वारा मध्यस्थ होते हैं और उस कारण से उन परम संयमियों को वास्तविक चारित्र होता है । उस चारित्र की अविचल स्थिति के हेतु से प्रतिक्रमणादि निश्चय-क्रिया कही जाती है । अतीत (भूत-काल के) दोषों के परिहार हेतु जो प्रायश्चित किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । 'आदि' शब्द से प्रत्याख्यानादि का संभव कहा जाता है (प्रतिक्रमणादि में जो 'आदि' शब्द है वह प्रत्याख्यान आदि का भी समावेश करने के लिये है )

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १३१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे ।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की ॥
और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ॥२५॥
जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेद-विज्ञान से सिद्ध हुए हैं; जो कोई बँधे हैं वे उसी के (भेद-विज्ञान के ही) अभाव से बँधे हैं ।

और

(कलश--रोला)
इसप्रकार की थिति में मुनिवर भेदज्ञान से ।
पापपंक को धोकर समतारूपी जल से ॥
ज्ञानरूप होने से आतम मोहमुक्त हो ।
शोभित होता समयसार की कैसी महिमा ॥११०॥
इसप्रकार जब मुनिनाथ को अत्यन्त भेदभाव (भेद-विज्ञान-परिणाम) होता है, तब यह (समयसार) स्वयं उपयोग होने से, मुक्त-मोह (मोह रहित) होता हुआ, शम-जल-निधि के पूर से (उपशम समुद्र के ज्वार से) पाप-कलङ्क को धोकर, विराजता (शोभता) है; वह सचमुच, इस समयसार का कैसा भेद है !