
णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥77॥
णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥78॥
णाहं बालो बुड्ढो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥79॥
णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥80॥
णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥81॥
नाहं नारकभावस्तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७७॥
नाहं मार्गणास्थानानि नाहं गुणस्थानानि जीवस्थानानि न ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७८॥
नाहं बालो वृद्धो न चैव तरुणो न कारणं तेषाम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७९॥
नाहं रागो द्वेषो न चैव मोहो न कारणं तेषाम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥८०॥
नाहं क्रोधो मानो न चैव माया न भवामि लोभोऽहम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥८१॥
नारक नहीं, तिर्यंच - मानव - देव पर्यय मैं नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७७॥
मैं मार्गणा के स्थान नहिं, गुणस्थान - जीवस्थान नहिं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७८॥
बालक नहीं मैं, वृद्ध नहिं, नहिं युवक, तिन कारण नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७९ ॥
मैं राग नहिं, मैं द्वेष नहिं, नहिं मोह, तिन कारण नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥८०॥
मैं क्रोध नहिं, मैं मान नहिं, माया नहीं, मैं लोभ नहिं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमोदक मैं नहीं ॥८१॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [नारकभावः] नारकपर्याय,[तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः] तिर्यंचपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्याय [न] नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम्अनुमंता न एव] कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।
[अहं मार्गणास्थानानि न] मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, [अहं] मैं [गुणस्थानानि न] गुणस्थान नहीं हूँ [जीवस्थानानि] जीवस्थान [न] नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं बालः वृद्धः] मैं बाल नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ, [न च एव तरुणः] तथा तरुण नहीं हूँ; [तेषां कारणं न] उनका कारण नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं रागः द्वेषः] मैं राग नहीं हूँ, द्वेष नहीं हूँ, [न च एव मोहः] तथा मोह नहींहूँ; [तेषां कारणं न] उनका कारण नहीं हूँ, [कर्ता न हि कारयिता] उनका कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ; [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं क्रोधः मानः] मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नहीं हूँ, [न च एव अहं माया] तथामैं माया नहीं हूँ, [लोभः न भवामि] लोभ नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।
Meaning : I am neither in any of the Soul quests, nor I am in any of the Spiritual stages, nor do I belong to any of the soul classes.
I am neither hellish, nor sub-human, nor human, nor am I in the celestial condition79.I am neither a child, nor young, nor old, nor the cause of any of them
I am neither attachment, nor aversion, nor delu. sion, nor the cause of any of them.
I am neither anger, nor pride, nor deceit, nor greed.
पद्मप्रभमलधारिदेव
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत (कलश--वंशस्थ) नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये स्मरेभकुंभस्थलभेदनाय वै । विनेयपंकेजविकाशभानवे विराजते माधवसेनसूरये ॥१०८॥ अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयनयात्मकपरमचारित्र-प्रतिपादनपरायणपरमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते । तत्रादौ तावत् पंचरत्नस्वरूपमुच्यते । तद्यथा - अथ पंचरत्नावतारः । अत्र शुद्धात्मनः सकलकर्तृत्वाभावं दर्शयति । बह्वारंभपरिग्रहाभावादहं तावन्नारकपर्यायो न भवामि । संसारिणो जीवस्य बह्वारंभ-परिग्रहत्वं व्यवहारतो भवति अत एव तस्य नारकायुष्कहेतुभूतनिखिलमोहरागद्वेषा विद्यन्ते, न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य । तिर्यक्पर्यायप्रायोग्यमायामिश्राशुभकर्मा-भावात्सदा तिर्यक्पर्यायकर्तृत्वविहीनोऽहम् । मनुष्यनामकर्मप्रायोग्यद्रव्यभावकर्माभावान्न मेमनुष्यपर्यायः शुद्धनिश्चयतो समस्तीति । निश्चयेन देवनामधेयाधारदेवपर्याययोग्यसुरस-सुगंधस्वभावात्मकपुद्गलद्रव्यसम्बन्धाभावान्न मे देवपर्यायः इति ।चतुर्दशभेदभिन्नानि मार्गणास्थानानि तथाविधभेदविभिन्नानि जीवस्थानानि गुण-स्थानानि वा शुद्धनिश्चयनयतः परमभावस्वभावस्य न विद्यन्ते । मनुष्यतिर्यक्पर्यायकायवयःकृतविकारसमुपजनितबालयौवनस्थविरवृद्धावस्थाद्यनेक-स्थूलकृशविविधभेदाः शुद्धनिश्चयनयाभिप्रायेण न मे सन्ति । सत्तावबोधपरमचैतन्यसुखानुभूतिनिरतविशिष्टात्मतत्त्वग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन मेसकलमोहरागद्वेषा न विद्यन्ते ।सहजनिश्चयनयतः सदा निरावरणात्मकस्य शुद्धावबोधरूपस्य सहजचिच्छक्ति मयस्यसहजद्रक्स्फू र्तिपरिपूर्णमूर्तेः स्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजयथाख्यातचारित्रस्य न मे निखिल-संसृतिक्लेशहेतवः क्रोधमानमायालोभाः स्युः ।अथामीषां विविधविकल्पाकुलानां विभावपर्यायाणां निश्चयतो नाहं कर्ता, न कारयितावा भवामि, न चानुमंता वा कर्तॄणां पुद्गलकर्मणामिति ।नाहं नारकपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये । नाहं तिर्यक्पर्यायंकुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये । नाहं मनुष्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासा-त्मकमात्मानमेव संचिंतये । नाहं देवपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।नाहं चतुर्दशमार्गणास्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये । नाहंमिथ्याद्रष्टयादिगुणस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये । नाह-मेकेन्द्रियादिजीवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।नाहं शरीरगतबालाद्यवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।नाहं भावकर्मात्मकषायचतुष्कं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति । (कलश--वसंततिलका) भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्त चिन्तः स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः । मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति पंचरत्नात् ॥१०९॥
(कलश--हरिगीत)
कामगज के कुंभथल का किया मर्दन जिन्होंने ।
विकसित करें जो शिष्यगण के हृदयपंकज नित्य ही ॥
परम संयम और सम्यक्बोध की हैं मूर्ति जो ।
हो नमन बारम्बार ऐसे सूरि माधवसेन को ॥१०८॥
संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामरूपी हाथी के कुम्भ-स्थल को भेदनेवाले तथा शिष्यरूपी कमल को विकसित करने में सूर्य समान, ऐसे हे विराजमान (शोभायमान) माधवसेनसूरि ! आपको नमस्कार हो ।
अब, सकल व्यावहारिक चारित्र से और उसके फल की प्राप्ति से प्रतिपक्ष ऐसा जो शुद्ध-निश्चयनयात्मक परम चारित्र उसका प्रतिपादन करनेवाला परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार कहा जाता है । वहाँ प्रारम्भ में पंचरत्न का स्वरूप कहते हैं । वह इसप्रकार : अब पाँच रत्नों का अवतरण किया जाता है :-
यहाँ शुद्ध आत्मा को सकल कर्तृत्व का अभाव दर्शाते हैं । - बहु आरम्भ तथा परिग्रह का अभाव होने के कारण मैं नारक-पर्याय नहीं हूँ । संसारी-जीव को बहु आरम्भ-परिग्रह व्यवहार से होता है और इसीलिये उसे नारक-आयु के हेतुभूत समस्त मोह-राग-द्वेष होते हैं, परन्तु मुझे, शुद्ध-निश्चय के बल से शुद्ध-जीवास्तिकाय को, वे नहीं हैं ।
- तिर्यञ्च-पर्याय के योग्य माया-मिश्रित अशुभ-कर्म का अभाव होने के कारण मैं सदा तिर्यञ्च-पर्याय के कर्तृत्व विहीन हूँ ।
- मनुष्य नाम-कर्म के योग्य द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म का अभाव होने के कारण मुझे मनुष्य-पर्याय शुद्ध-निश्चय से नहीं है ।
- 'देव' ऐसे नाम का आधार जो देव-पर्याय उसके योग्य सुरस-सुगन्ध स्वभाववाले पुद्गल-द्रव्य के सम्बन्ध का अभाव होने के कारण निश्चय से मुझे देव-पर्याय नहीं है ।
- चौदह भेदवाले मार्गणास्थान तथा उतने (चौदह) भेदवाले जीवस्थान या गुणस्थान शुद्ध-निश्चयनय से परमभाव स्वभाव वाले को (परमभाव जिसका स्वभाव है ऐसे मुझे) नहीं हैं ।
- मनुष्य और तिर्यञ्च-पर्याय की काया के, वयकृत विकार से (परिवर्तन से) उत्पन्न होनेवाले बाल-युवा-स्थविर-वृद्धावस्थादिरूप अनेक स्थूल-कृश विविध भेद शुद्ध-निश्चयनय के अभिप्राय से मेरे नहीं हैं ।
- सत्ता, अवबोध, परम चैतन्य और सुख की अनुभूति में लीन ऐसे विशिष्ट आत्म-तत्त्व को ग्रहण करनेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से मेरे सकल मोह-राग-द्वेष नहीं हैं ।
- सहज निश्चयनय से (१) सदा निरावरणस्वरूप, (२) शुद्धज्ञानरूप, (३) सहजचित्शक्तिमय, (४) सहज दर्शन के स्फुरण से परिपूर्ण मूर्ति (जिसकी मूर्ति अर्थात् स्वरूप सहज दर्शन के स्फुरण से परिपूर्ण है ऐसे) और (५) स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज यथाख्यात चारित्रवाले ऐसे मुझे समस्त संसार क्लेश के हेतु क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं हैं ।
अब, इन (उपरोक्त) विविध विकल्पों से (भेदों से) भरी हुई विभाव-पर्यायों का निश्चय से मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ और पुद्गल-कर्मरूप कर्ता का (विभाव-पर्यायों के कर्ता जो पुद्गलकर्म उनका) अनुमोदक नहीं हूँ (इसप्रकार वर्णन किया जाता है) । - मैं नारक-पर्याय को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं तिर्यंच-पर्याय को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं मनुष्य-पर्याय को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं देव-पर्याय को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं चौदह मार्गणास्थान के भेदों को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान भेदों को नहीं करता, सहज-चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं एकेन्द्रियादि जीवस्थान भेदों को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं शरीर-सम्बन्धी बालादि अवस्था-भेदों को नहीं करता, सहज-चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं रागादि-भेदरूप भाव-कर्म के भेदों को नहीं करता, सहज-चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
- मैं भाव-कर्मात्मक चार कषायों को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास-स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ ।
(यहाँ टीका में जिसप्रकार कर्ता के सम्बन्ध में वर्णन किया, उसी प्रकार कारयिता और अनुमन्ता / अनुमोदक के सम्बन्ध में भी समझ लेना ।)
इसप्रकार पाँच रत्नों के शोभित कथन-विस्तार द्वारा सकल विभाव-पर्यायों के सन्न्यास का (त्याग का) विधान कहा है ।
(कलश--हरिगीत)
सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण की भावना से मुक्त हों ।
निज द्रव्य गुण पर्याय में जो हो गये अनुरक्त हों ॥
छोड़कर सब विभावों को नित्य निज में ही रमें ।
अति शीघ्र ही वे भव्य मुक्तीरमा की प्राप्ति करें ॥१०९॥
इसप्रकार पंचरत्नों द्वारा जिसने समस्त विषयों के ग्रहण की चिन्ता को छोड़ा है और निज द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप में चित्त एकाग्र किया है, वह भव्य जीव निज भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर अल्प-काल में मुक्ति को प्राप्त करता है ।
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