
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत् । यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाह्यप्रपंचरूपम्अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति । (कलश--हरिणी) अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम् । भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ॥११८॥ त्रिगुप्तिगुप्तपना (मन-वचन-काय गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परमतपोधन को निश्चयचारित्र होने का यह कथन है । परम तपश्चरणरूपी सरोवर के कमलसमूह के लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-आसन्न भव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प - परमसमाधिलक्षण से लक्षित अति-अपूर्व आत्मा को ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय परमसंयमी होने से ही निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं । ( हरिगीत )
मन-वचन-काय की विकृति को सदा छोड़कर, भव्य मुनि सम्यग्ज्ञान के पुंजमयी इस सहज परम गुप्ति को शुद्धात्मा की भावना सहित उत्कृष्टरूप से भजो । त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनि का वह चारित्र निर्मल है ।
सद्ज्ञानमय शुद्धात्मा पर है न कोई आवरण । त्रिगुप्तिधारी मुनिवरों का परम निर्मल आचरण ॥ मन-वचन-तन की विकृति को छोड़कर हे भव्यजन ! शुद्धात्मा की भावना से परम गुप्ती को भजो ॥११८॥ |