+ त्रिगुप्तिगुप्त ही प्रतिक्रमण -
चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥88॥
त्यक्त्वा अगुप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८८॥
जो साधु छोड़ अगुप्ति को त्रय-गुप्ति में विचरण करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतु से प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥८८॥
अन्वयार्थ : [यः साधुः] जो साधु [अगुप्तिभावं] अगुप्तिभाव [त्यक्त्वा] छोड़कर, [त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत्] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [सः] वह (साधु) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।
Meaning : A saint, who avoiding uncontrolled thought-activities, is absorbed in the three-fold control (of mind, body and speech).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत् ।
यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाह्यप्रपंचरूपम्अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति ।
(कलश--हरिणी)
अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम् ।
भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ॥११८॥



त्रिगुप्तिगुप्तपना (मन-वचन-काय गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परमतपोधन को निश्चयचारित्र होने का यह कथन है ।

परम तपश्चरणरूपी सरोवर के कमलसमूह के लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-आसन्न भव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प - परमसमाधिलक्षण से लक्षित अति-अपूर्व आत्मा को ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय परमसंयमी होने से ही निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं ।

( हरिगीत )
सद्ज्ञानमय शुद्धात्मा पर है न कोई आवरण ।
त्रिगुप्तिधारी मुनिवरों का परम निर्मल आचरण ॥
मन-वचन-तन की विकृति को छोड़कर हे भव्यजन !
शुद्धात्मा की भावना से परम गुप्ती को भजो ॥११८॥
मन-वचन-काय की विकृति को सदा छोड़कर, भव्य मुनि सम्यग्ज्ञान के पुंजमयी इस सहज परम गुप्ति को शुद्धात्मा की भावना सहित उत्कृष्टरूप से भजो । त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनि का वह चारित्र निर्मल है ।