+ धर्म-शुक्ल ध्यानी ही प्रतिक्रमण -
मोत्तूण अट्टरुद्दं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा ।
सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ॥89॥
मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ॥८९॥
जो आर्त रौद्र विहाय वर्त्ते धर्म-शुक्ल सुध्यान में ।
प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेव के आख्यान में ॥८९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [आर्तरौद्रं ध्यानं] आर्त और रौद्र ध्यान [मुक्त्वा] छोड़कर [धर्मशुक्लं वा] धर्म अथवा शुक्लध्यान को [ध्यायति] ध्याता है, [सः] वह (जीव) [जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु] जिनवर-कथित सूत्रों में [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है ।
Meaning : He, who avoids (both) the thoughts of pain and ill-will, and entertains righteous and pure thoughts,

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
ध्यानविकल्पस्वरूपाख्यानमेतत् ।
स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्द्वेषजनित-रौद्रध्यानं च, एतद्द्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण
त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प-विरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनार-विन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति ।

तथा चोक्तम् -
(कलश--अनुष्टुभ्)
निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् ।
अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ॥
(कलश--वसंततिलका)
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे ।
सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग-
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ॥११९॥
(कलश--वसंततिलका)सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् ।
नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ॥१२०॥



यह, ध्यान के भेदों के स्वरूप का कथन है ।

  1. स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजन के विदेशगमन से, कमनीय (इष्ट,सुन्दर) कामिनी के वियोग से अथवा अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होनेवाला जो आर्तध्यान, तथा
  2. चोर - जार - शत्रुजनों के बध - बन्धन सम्बन्धी महा द्वेष से उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान, वे दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्ष के अपरिमित सुख से प्रतिपक्ष संसार-दुःख के मूल होने के कारण उन दोनों को निरवशेषरूप से (सर्वथा) छोड़कर,
  3. स्वर्ग और मोक्ष के निःसीम (अपार) सुख का मूल ऐसा जो स्वात्माश्रित निश्चय - परम धर्म-ध्यान, तथा
  4. ध्यान और ध्येय के विविध विकल्प रहित, अंतर्मुखाकार, सकल इन्द्रियों के समूहसे अतीत (समस्त इन्द्रियातीत) और निर्भेद परम कला सहित ऐसा जो निश्चय - शुक्लध्यान, उन्हें ध्याकर, जो भव्य पुंडरीक (भव्योत्तम) परमभाव की (पारिणामिक भाव की) भावनारूप से परिणमित हुआ है, वह निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप है - ऐसा परम जिनेन्द्र के मुखारविंद से निकले हुए द्रव्यश्रुत में कहा है ।
चार ध्यानों में प्रथम दो ध्यान हेय हैं, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा उपादेय है ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यान ध्येय विवर्जित (अर्थात् ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यान को योगी शुक्ल-ध्यान कहते हैं ।

(कलश--रोला)
अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय ।
ध्यान-ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो ।
अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति ।
ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते ॥
सदा प्रगट कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में ।
ध्यानावलि है कभी कहे न परमशुद्धनय ॥
ऐसा तो व्यवहारमार्ग में ही कहते हैं ।
हे जिनवर यह तो सब अद्भुत इन्द्रजाल है ॥११९॥
प्रगटरूप से सदाशिवमय (निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म-तत्त्व में ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । 'वह है' (अर्थात् ध्यानावली आत्मा में है ) ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्ग ने सतत कहा है । हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व (नय द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है ।

(कलश--रोला )
ज्ञानतत्त्व का आभूषण परमात्मतत्त्व यह ।
अरे विकल्पों के समूह से सदा मुक्त है ॥
नय समूहगत यह प्रपंच न आत्मतत्त्व में ।
तब ध्यानावलि कैसे आई कहो जिनेश्वर ॥१२० ॥
सम्यग्ज्ञान का आभूषण ऐसा यह परमात्म-तत्त्व समस्त विकल्प-समूहों से सर्वतः मुक्त (सर्व ओर से रहित) है । (इसप्रकार) सर्व नय समूह सम्बन्धी यह प्रपंच परमात्म-तत्त्व में नहीं है तो फिर वह ध्यानावली इसमें किस प्रकार उत्पन्न हुई (अर्थात् ध्यानावली इस परमात्म तत्त्व में कैसे हो सकती है ) सो कहो ।