
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
ध्यानविकल्पस्वरूपाख्यानमेतत् । स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्द्वेषजनित-रौद्रध्यानं च, एतद्द्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प-विरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनार-विन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति । तथा चोक्तम् - (कलश--अनुष्टुभ्) निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् । अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ॥ (कलश--वसंततिलका) ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे । सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग- स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ॥११९॥ (कलश--वसंततिलका)सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् । नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ॥१२०॥ यह, ध्यान के भेदों के स्वरूप का कथन है ।
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :- जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यान ध्येय विवर्जित (अर्थात् ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यान को योगी शुक्ल-ध्यान कहते हैं । (कलश--रोला)
प्रगटरूप से सदाशिवमय (निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म-तत्त्व में ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । 'वह है' (अर्थात् ध्यानावली आत्मा में है ) ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्ग ने सतत कहा है । हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व (नय द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है ।अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय । ध्यान-ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो । अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति । ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते ॥ सदा प्रगट कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में । ध्यानावलि है कभी कहे न परमशुद्धनय ॥ ऐसा तो व्यवहारमार्ग में ही कहते हैं । हे जिनवर यह तो सब अद्भुत इन्द्रजाल है ॥११९॥ (कलश--रोला )
सम्यग्ज्ञान का आभूषण ऐसा यह परमात्म-तत्त्व समस्त विकल्प-समूहों से सर्वतः मुक्त (सर्व ओर से रहित) है । (इसप्रकार) सर्व नय समूह सम्बन्धी यह प्रपंच परमात्म-तत्त्व में नहीं है तो फिर वह ध्यानावली इसमें किस प्रकार उत्पन्न हुई (अर्थात् ध्यानावली इस परमात्म तत्त्व में कैसे हो सकती है ) सो कहो ।
ज्ञानतत्त्व का आभूषण परमात्मतत्त्व यह । अरे विकल्पों के समूह से सदा मुक्त है ॥ नय समूहगत यह प्रपंच न आत्मतत्त्व में । तब ध्यानावलि कैसे आई कहो जिनेश्वर ॥१२० ॥ |