
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थ-प्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन्सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त भेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषेणान्तर्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति । तथा चोक्तं समयसारे - पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो ॥ तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् - (कलश--वसंततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम् । बुद्धवा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ॥१२३॥ यहाँ (इस गाथा में), निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा है । जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह दिया जाने के कारण, देहत्याग व्यवहार से धर्म है । निश्चयसे -- नव अर्थों में उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानन्दमय कारण समयसार स्वरूप ऐसे उस आत्मा में जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये वे कर्म का विनाश करते हैं । इसलिये अध्यात्म भाषा से, पूर्वोक्त भेदकरण रहित, ध्यान और ध्येय के विकल्प रहित, निरवशेषरूप से अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और सकल इन्द्रियों से अगोचर निश्चय - परम शुक्ल-ध्यान ही निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ऐसा जानना । और, निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय धर्मध्यान तथा निश्चय शुक्ल-ध्यानमय होने से अमृत-कुम्भस्वरूप है; व्यवहार-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण व्यवहार धर्म-ध्यानमय होने से विषकुम्भ-स्वरूप है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निंदा, ७गर्हा और ८शुद्धि -- इन आठ प्रकार का विषकुम्भ है ।प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा । निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं ॥३१॥ और इसीप्रकार श्री समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में (१८९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला )
जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है, वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से होगा ? तो फिर मनुष्य नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? निष्प्रमादी होते हुए ऊँचे-ऊँचे क्यों नहीं चढ़ते ?प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो । अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ॥ अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ? इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? ॥३२॥ और (कलश--हरिगीत)
आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है, (और) ध्यान-ध्येयादिक सुतप (ध्यान, ध्येय आदि के विकल्पवाला शुभ तप भी) कल्पनामात्र रम्य है; ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए (निमग्न होते हुए) ऐसे सहज परमात्मा का -- एक का आश्रय करते हैं ।रे ध्यान-ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं । इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं ॥ यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में । डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में ॥१२३॥ १प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना । २ प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा । ३ परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषों का निवारण । ४ धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों के आलम्बन द्वारा चित्त को स्थिर करना । ५ निवृत्ति = बाह्य विषय कषायादि इच्छा में वर्तते हुए चित्त को मोड़ना । ६ निंदा = आत्मसाक्षी से दोषों का प्रगट करना । ७ गर्हा = गुरुसाक्षी से दोषों का प्रगट करना । ८ शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना । |