+ निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण -
उत्तमअट्ठं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं ।
तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं ॥92॥
उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवराः कर्म ।
तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ॥९२॥
है जीव उत्तम अर्थ, मुनि तत्रस्थ हन्ता कर्म का ।
अतएव है बस ध्यान ही प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ का ॥९२॥
अन्वयार्थ : [उत्तमार्थः] उत्तमार्थ (उत्तम पदार्थ) [आत्मा] आत्मा है; [तस्मिन् स्थिताः] उसमें स्थित [मुनिवराः] मुनिवर [कर्म घ्नन्ति] कर्म का घात करते हैं । [तस्मात् तु] इसलिये [ध्यानम् एव] ध्यान ही [हि] वास्तव में [उत्तमार्थस्य] उत्तमार्थ का [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण है ।
Meaning : Soul is a supreme category, Saints absorbed in it destroy the Karmas; therefore self-concentration only is the repentance of the highest order

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् ।

इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थ-प्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन्सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त भेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषेणान्तर्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति ।
तथा चोक्तं समयसारे -
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य ।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो ॥


तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् -
(कलश--वसंततिलका)
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ॥


तथा हि -
(कलश--मंदाक्रांता)
आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं
ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम् ।
बुद्धवा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ॥१२३॥



यहाँ (इस गाथा में), निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा है ।

जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह दिया जाने के कारण, देहत्याग व्यवहार से धर्म है । निश्चयसे -- नव अर्थों में उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानन्दमय कारण समयसार स्वरूप ऐसे उस आत्मा में जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये वे कर्म का विनाश करते हैं । इसलिये अध्यात्म भाषा से, पूर्वोक्त भेदकरण रहित, ध्यान और ध्येय के विकल्प रहित, निरवशेषरूप से अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और सकल इन्द्रियों से अगोचर निश्चय - परम शुक्ल-ध्यान ही निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ऐसा जानना । और, निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय धर्मध्यान तथा निश्चय शुक्ल-ध्यानमय होने से अमृत-कुम्भस्वरूप है; व्यवहार-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण व्यवहार धर्म-ध्यानमय होने से विषकुम्भ-स्वरूप है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा ।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं ॥३१॥
प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि -- इन आठ प्रकार का विषकुम्भ है ।

और इसीप्रकार श्री समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में (१८९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला )
प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो ।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ॥
अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? ॥३२॥
जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है, वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से होगा ? तो फिर मनुष्य नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? निष्प्रमादी होते हुए ऊँचे-ऊँचे क्यों नहीं चढ़ते ?

और

(कलश--हरिगीत)
रे ध्यान-ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं ।
इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं ॥
यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में ।
डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में ॥१२३॥
आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है, (और) ध्यान-ध्येयादिक सुतप (ध्यान, ध्येय आदि के विकल्पवाला शुभ तप भी) कल्पनामात्र रम्य है; ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए (निमग्न होते हुए) ऐसे सहज परमात्मा का -- एक का आश्रय करते हैं ।


प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना ।
प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा ।
परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषों का निवारण ।
धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों के आलम्बन द्वारा चित्त को स्थिर करना ।
निवृत्ति = बाह्य विषय कषायादि इच्छा में वर्तते हुए चित्त को मोड़ना ।
निंदा = आत्मसाक्षी से दोषों का प्रगट करना ।
गर्हा = गुरुसाक्षी से दोषों का प्रगट करना ।
शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना ।