
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं, तत्रैवावस्तुनिवस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं, तन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च, एतत्र्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकरत्नत्रयम्, एतदपि त्यक्त्वा । त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिरंजननिजपरमपारिणामिकभावात्मककारण-परमात्मा ह्यात्मा, तत्स्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्; एवं भगवत्परमात्मसुखाभिलाषी यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् आत्मानं भावयति स परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्त : । (कलश--वसंततिलका) त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्ग- रत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी । शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे ॥१२२॥ भगवान अर्हत् परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान वह मिथ्यादर्शन है, उसी में कही हुई अवस्तु में वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है और उस मार्ग का आचरण वह मिथ्याचारित्र है; -- इन तीनों को निरवशेषरूप से छोड़कर । अथवा, निजआत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान के रूप से विमुखता वही मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक (मिथ्या) रत्नत्रय है; -- इसे भी (निरवशेष रूप से) छोड़कर । त्रिकाल-निरावरण, नित्य-आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसा, निरंजन निज परम-पारिणामिक-भावस्वरूप कारण-परमात्मा वह आत्मा है; उसके स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का रूप वह वास्तव में निश्चय-रत्नत्रय है; -- इसप्रकार भगवान परमात्मा के सुख का अभिलाषी ऐसा जो परम पुरुषार्थ-परायण (परम तपोधन) शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा को भाता है, उस परम तपोधन को ही (शास्त्र में) निश्चय प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा है । (कलश--दोहा)
समस्त विभाव को तथा व्यवहार-मार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निज तत्त्ववेदी (निज आत्मतत्त्व को जाननेवाला - अनुभवनेवाला) मतिमान पुरुष शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत (शुद्धात्म तत्त्वपरायण) ऐसा जो एक निजज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फिर दूसरा चारित्र उसका आश्रय करता है ।
जानकार निजतत्त्व के तज विभाव व्यवहार । आत्मज्ञान श्रद्धानमय धरें विमल आचार ॥१२२॥ |