+ व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता -
पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं ।
तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ॥94॥
प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे यथा वर्णितं प्रतिक्रमणम् ।
तथा ज्ञात्वा यो भावयति तस्य तदा भवति प्रतिक्रमणम् ॥९४॥
प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें प्रतिक्रमण वर्णित है यथा ।
होता उसे प्रतिक्रमण जो जाने तथा भावे तथा ॥९४॥
अन्वयार्थ : [प्रतिक्रमणनामधेये] प्रतिक्रमण नामक [सूत्रे] सूत्र में [यथा] जिसप्रकार [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण का [वर्णितं] वर्णन किया गया है [तथा ज्ञात्वा] तदनुसार जानकर [यः] जो [भावयति] भाता है, [तस्य] उसे [तदा] तब [प्रतिक्रमणम् भवति] प्रतिक्रमण है ।
Meaning : He, who having understood the modes of repentance, as related in the scriptures known by the name of "Pratikramana Sutra" meditates upon it, is then said to have repent. ance (from the practical point of view)

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र व्यवहारप्रतिक्रमणस्य सफलत्वमुक्तम् ।

यथा हि निर्यापकाचार्यैः समस्तागमसारासारविचारचारुचातुर्यगुणकदम्बकैःप्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्रमणं, तथा ज्ञात्वा जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंच-विमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमगुरुचरणस्मरणासक्त चित्तस्य तदा प्रतिक्रमणं भवतीति ।

(कलश--इन्द्रवज्रा)
निर्यापकाचार्यनिरुक्ति युक्ता-
मुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् ।
समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात्तस्मै
नमः संयमधारिणेऽस्मै ॥१२५॥
(कलश--वसंततिलका)
यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो-
र्नास्त्यप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः ।
तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय
श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ॥१२६॥


इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायांनियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः श्रुतस्कन्धः ॥


यहाँ, व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता कही है (द्रव्य श्रुतात्मक प्रतिक्रमण सूत्र में वर्णित प्रतिक्रमण को सुनकर / जानकर, सकल संयम की भावना करना वही व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता / सार्थकता है -- ऐसा इस गाथा में कहा है )

समस्त आगम के सारासार का विचार करने में सुन्दर चातुर्य तथा गुण-समूह के धारण करनेवाले निर्यापक आचार्यों ने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमण नामक सूत्र में प्रतिक्रमण का अति विस्तार से वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीति को अनुल्लंघता हुआ जो सुन्दर चारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयम की भावना करता है, उस महामुनि को, कि जो (महामुनि) बाह्य-प्रपंच से विमुख है, पंचेन्द्रिय के फैलाव रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है और परमगुरु के चरणों के स्मरण में आसक्त जिसका चित्त है, उसे, तब (उसकाल) प्रतिक्रमण है ।

(कलश--दोहा)
निर्यापक आचार्य के सुनकर वचन सयुक्ति ।
जिनका चित्त चारित्र घर वन्दूँ उनको नित्य ॥१२५॥
निर्यापक आचार्यों की निरुक्ति (व्याख्या) सहित (प्रतिक्रमणादि सम्बन्धी) कथन सदा सुनकर जिसका चित्त समस्त चारित्र का निकेतन(धाम) बनता है, ऐसे उस संयमधारी को नमस्कार हो ।

(कलश--वसंततिलका)
अरे जिन्हें प्रतिक्रमण ही नित्य वर्ते ।
अणुमात्र अप्रतिक्रमण जिनके नहीं है ॥
जो सकल संयम भूषण नित्य धारें ।
उन वीरनन्दि मुनि को नित ही नमें हम ॥१२६॥
मुमुक्षु ऐसे जिन्हें (मोक्षार्थी ऐसे जिन वीरनन्दि मुनि को) सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है, उन सकल-संयमरूपी भूषण के धारण करनेवाले श्री वीरनन्दी नाम के मुनि को नित्य नमस्कार हो ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नाम का पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।