
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथेदानीं सकलप्रव्रज्यासाम्राज्यविजयवैजयन्तीपृथुलदंडमंडनायमानसकलकर्मनिर्जराहेतु-भूतनिःश्रेयसनिश्रेणीभूतमुक्ति भामिनीप्रथमदर्शनोपायनीभूतनिश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः कथ्यते । तद्यथा - अत्र सूत्रावतारः । निश्चयनयप्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तंप्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयनयतः प्रशस्ता-प्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभाव-कर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । यः सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायतितस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति । तथा चोक्तं समयसारे - सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ॥ तथा समयसारव्याख्यायां च - (कलश--आर्या) प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ तथा हि - (कलश-मंदाक्रांता) सम्यग्द्रष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तेः । सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्चैः तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ॥१२७॥ अब निम्नानुसार निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार कहा जाता है - कि जो निश्चय-प्रत्याख्यान सकल प्रव्रज्यारूप साम्राज्य की विजय-ध्वजा के विशाल दंड की शोभा समान है, समस्त कर्मों की निर्जरा के हेतुभूत है, मोक्ष की सीढ़ी है और मुक्तिरूपी स्त्री के प्रथम दर्शन की भेंट है । वह इसप्रकार है :यहाँ गाथा-सूत्र का अवतरण किया जाता है :- यह, निश्चयनय के प्रत्याख्यान के स्वरूप का कथन है । यहाँ ऐसा कहा है कि — व्यवहारनय के कथन से, मुनि दिन-दिन में (प्रतिदिन) भोजन करके फिर योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं; यह व्यवहार-प्रत्याख्यान का स्वरूप है । निश्चयनय से, प्रशस्त / अप्रशस्त समस्त वचन-रचना के प्रपंच (विस्तार) के परिहार द्वारा शुद्धज्ञान-भावना की सेवा के प्रसाद द्वारा जो नवीन शुभाशुभ द्रव्य-कर्मों का तथा भाव-कर्मों का संवर होना सो प्रत्याख्यान है । जो सदा अन्तर्मुख परिणमन से परम कला के आधाररूप अति-अपूर्व आत्मा को ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (३४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
'अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है / त्याग करता है, इसीलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (अर्थात् अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है) ऐसा नियम से जानना ।परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे । तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है ॥स.सा.--३४॥ इसीप्रकार समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में भी (२२८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके (त्यागकर), जिसका मोह नष्ट हुआ है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं । करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥आ.ख्याति--२२८॥ और (कलश--हरिगीत)
जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्म के समूह को छोड़ता है, उस सम्यग्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है और उसे पाप-समूह का नाश करनेवाले ऐसे सत्-चारित्र अतिशयरूप से है । भव-भव के क्लेश का नाश करने के लिये उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ ।
जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को । उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है ॥ और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब । वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होने के लिए ॥१२७॥ |