+ निश्चय प्रत्याख्यान का स्वरूप -
मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥95॥
मुक्त्वा सकलजल्पमनागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा ।
आत्मानं यो ध्यायति प्रत्याख्यानं भवेत्तस्य ॥९५॥
भावी शुभाशुभ छोड़कर, तजकर वचन विस्तार रे ।
जो जीव ध्याता आत्म, प्रत्याख्यान होता है उसे ॥९५॥
अन्वयार्थ : [सकलजल्पम्] समस्त जल्प को (वचन-विस्तार को) [मुक्त्वा] छोड़कर और [अनागतशुभाशुभनिवारणं] अनागत शुभ-अशुभ का निवारण [कृत्वा] करके [यः] जो [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [भवेत्] है ।
Meaning : He, who having understood the modes of repentance, as related in the scriptures known by the name of "Pratikramana Sutra" meditates upon it, is then said to have repent. ance (from the practical point of view)

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथेदानीं सकलप्रव्रज्यासाम्राज्यविजयवैजयन्तीपृथुलदंडमंडनायमानसकलकर्मनिर्जराहेतु-भूतनिःश्रेयसनिश्रेणीभूतमुक्ति भामिनीप्रथमदर्शनोपायनीभूतनिश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः कथ्यते ।
तद्यथा - अत्र सूत्रावतारः ।
निश्चयनयप्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत् ।

अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तंप्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयनयतः प्रशस्ता-प्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभाव-कर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । यः सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायतितस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति ।
तथा चोक्तं समयसारे -
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं ।
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ॥


तथा समयसारव्याख्यायां च -
(कलश--आर्या)
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥


तथा हि -
(कलश-मंदाक्रांता)
सम्यग्द्रष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं
प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तेः ।
सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्चैः
तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ॥१२७॥



अब निम्नानुसार निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार कहा जाता है - कि जो निश्चय-प्रत्याख्यान सकल प्रव्रज्यारूप साम्राज्य की विजय-ध्वजा के विशाल दंड की शोभा समान है, समस्त कर्मों की निर्जरा के हेतुभूत है, मोक्ष की सीढ़ी है और मुक्तिरूपी स्त्री के प्रथम दर्शन की भेंट है । वह इसप्रकार है :यहाँ गाथा-सूत्र का अवतरण किया जाता है :-

यह, निश्चयनय के प्रत्याख्यान के स्वरूप का कथन है ।

यहाँ ऐसा कहा है कि — व्यवहारनय के कथन से, मुनि दिन-दिन में (प्रतिदिन) भोजन करके फिर योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं; यह व्यवहार-प्रत्याख्यान का स्वरूप है । निश्चयनय से, प्रशस्त / अप्रशस्त समस्त वचन-रचना के प्रपंच (विस्तार) के परिहार द्वारा शुद्धज्ञान-भावना की सेवा के प्रसाद द्वारा जो नवीन शुभाशुभ द्रव्य-कर्मों का तथा भाव-कर्मों का संवर होना सो प्रत्याख्यान है । जो सदा अन्तर्मुख परिणमन से परम कला के आधाररूप अति-अपूर्व आत्मा को ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (३४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे ।
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है ॥स.सा.--३४॥
'अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है / त्याग करता है, इसीलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (अर्थात् अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है) ऐसा नियम से जानना ।

इसीप्रकार समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में भी (२२८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं ।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥आ.ख्याति--२२८॥
भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके (त्यागकर), जिसका मोह नष्ट हुआ है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।

और

(कलश--हरिगीत)
जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को ।
उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है ॥
और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब ।
वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होने के लिए ॥१२७॥
जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्म के समूह को छोड़ता है, उस सम्यग्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है और उसे पाप-समूह का नाश करनेवाले ऐसे सत्-चारित्र अतिशयरूप से है । भव-भव के क्लेश का नाश करने के लिये उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ ।