+ एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण -
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥102॥
एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः ।
शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥१०२॥
दृग्ज्ञान-लक्षित और शाश्वत मात्र - आत्मा मम अरे ।
अरु शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे है परे ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानदर्शनलक्षणः] ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला [शाश्वतः] शाश्वत [एकः] एक [आत्मा] आत्मा [मे] मेरा है; [शेषाः सर्वे] शेष सब [संयोगलक्षणाः भावाः] संयोग-लक्षणवाले भाव [मे बाह्याः] मुझसे बाह्य हैं ।
Meaning : My soul is ever one, eternal, and having knowledge and conation as (its) differentia. All the other thoughtactivities are foreign to me, (because they arise out of soul's) connection with other (substances).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
एकत्वभावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम् ।
अखिलसंसृतिनन्दनतरुमूलालवालांभःपूरपरिपूर्णप्रणालिकावत्संस्थितकलेवरसंभवहेतु-भूतद्रव्यभावकर्माभावादेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहल-निर्मुक्त सहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति, यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; येशुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः, स्वस्वरूपाद्बाह्यास्ते सर्वे; इति मम निश्चयः ।
(कलश--मालिनी)
अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः
सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः ।
निरवधिनिजदिव्यज्ञानद्रग्भ्यां समृद्धः
किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ॥१३८॥



एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण का यह कथन है ।

त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होने से निरावरण - ज्ञान-दर्शन लक्षण से लक्षित ऐसा जो कारण-परमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिये जल-प्रवाह से परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्ति में हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित होने से एक है, और वही (कारण-परमात्मा) समस्त क्रियाकाण्ड के आडम्बर के विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित सहज शुद्ध-ज्ञान-चेतना कोअतीन्द्रियरूप से भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूप से रहता है; जो शुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूप से बाह्य हैं -- ऐसा मेरा निश्चय है ।

(कलश--वीर)
सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है ।
सहज परम चिद् चिन्तामणि चैतन्य गुणों का बसेरा है ॥
अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है ।
अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है ॥१३८॥
अहो ! मेरा परमात्मा शाश्वत है, एक है, सहज परम चैतन्य-चिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनन्त निज दिव्य ज्ञान-दर्शन से समृद्ध है । ऐसा है, तो फिर बहु प्रकार के बाह्य भावों से मुझे क्या फल है ?