
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
एकत्वभावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम् । अखिलसंसृतिनन्दनतरुमूलालवालांभःपूरपरिपूर्णप्रणालिकावत्संस्थितकलेवरसंभवहेतु-भूतद्रव्यभावकर्माभावादेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहल-निर्मुक्त सहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति, यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; येशुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः, स्वस्वरूपाद्बाह्यास्ते सर्वे; इति मम निश्चयः । (कलश--मालिनी) अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः । निरवधिनिजदिव्यज्ञानद्रग्भ्यां समृद्धः किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ॥१३८॥ एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण का यह कथन है । त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होने से निरावरण - ज्ञान-दर्शन लक्षण से लक्षित ऐसा जो कारण-परमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिये जल-प्रवाह से परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्ति में हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित होने से एक है, और वही (कारण-परमात्मा) समस्त क्रियाकाण्ड के आडम्बर के विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित सहज शुद्ध-ज्ञान-चेतना कोअतीन्द्रियरूप से भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूप से रहता है; जो शुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूप से बाह्य हैं -- ऐसा मेरा निश्चय है । (कलश--वीर)
अहो ! मेरा परमात्मा शाश्वत है, एक है, सहज परम चैतन्य-चिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनन्त निज दिव्य ज्ञान-दर्शन से समृद्ध है । ऐसा है, तो फिर बहु प्रकार के बाह्य भावों से मुझे क्या फल है ?
सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है । सहज परम चिद् चिन्तामणि चैतन्य गुणों का बसेरा है ॥ अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है । अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है ॥१३८॥ |