+ संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है -
एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं ।
एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ ॥101॥
एकश्च म्रियते जीवः एकश्च जीवति स्वयम् ।
एकस्य जायते मरणं एकः सिध्यति नीरजाः ॥१०१॥
मरता अकेला जीव, एवं जन्म एकाकी करे ।
पाता अकेला ही मरण, अरु मुक्ति एकाकी करे ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [जीवः एकः च] जीव अकेला [म्रियते] मरता है [च] और [स्वयम् एकः] स्वयं अकेला [जीवति] जन्मता है; [एकस्य] अकेले का [मरणं जायते] मरण होता है और [एकः] अकेला [नीरजाः] रज-रहित (कर्म-रहित) होता हुआ [सिध्यति] सिद्ध होता है ।
Meaning : Mundane soul is killed alone, is born alone, dies alone and alone becomes perfect after being liberated from karmas (A right knower should contemplate as such).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्त : ।

नित्यमरणे तद्भवमरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चैक एव म्रियते; सादि-सनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्यजीवस्याप्रार्थितमपि स्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रय निश्चयशुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति ।

तथा चोक्तम् -
(कलश--अनुष्टुभ्)
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥


उक्तं च श्रीसोमदेवपंडितदेवैः -
(कलश--वसंततिलका)
एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च
भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफ लानुबन्धम् ।
अन्यो न जातु सुखदुःखविधौ सहायः
स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ॥


तथा हि -
(कलश--मंदाक्रांता)
एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीवः
कर्मद्वन्द्वोद्भवफ लमयं चारुसौख्यं च दुःखम् ।
भूयो भुंक्ते स्वसुखविमुखः सन् सदा तीव्रमोहा-
देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ॥१३७॥



यहाँ (इस गाथा में), संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है ऐसा कहा है ।

नित्य मरण में (प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के निषेकों के क्षय में) और उस भव सम्बन्धी मरण में, (अन्य किसी की) सहायता के बिना व्यवहार से (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्यायरूप नर-नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति में, आसन्न-अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय के कथन से (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है । सर्व बन्धुजनों से रक्षण किया जाने पर भी, महाबल पराक्रमवाले जीव का अकेले का ही, अनिच्छित होने पर भी, स्वयमेव मरण होता है; (जीव) अकेला ही परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से निज-आत्मा को ध्याकर रज-रहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
स्वयं करे भोगे स्वयं यह आतम जग माँहि ।
स्वयं रुले संसार में स्वयं मुक्त हो जाँहि ॥
आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में भ्रमता है तथा स्वयं संसार से मुक्त होता है ।

और श्री सोमदेवपंडितदेव ने (यशस्तिलकचंपू काव्य में दूसरे अधिकार में एकत्वानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--वीर)
जनम-मरण के सुख-दुख तूने स्वयं अकेले भोगे हैं ।
मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं ॥
यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से ।
लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ॥४१॥
स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्री पुत्र मित्रादिक) सुख-दुःख के प्रकारों में बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविका के लिये (मात्र अपने स्वार्थ के लिये स्त्री-पुत्र-मित्रादिक) ठगों की टोली तुझे मिली है ।

और

(कलश--वीर)
जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है ।
तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है ॥
जनम-मरण के दु:ख अनंते इसने अबतक प्राप्त किये ।
गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है ॥१३७॥
जीव अकेला प्रबल दुष्कृत से जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र-मोह के कारण स्वसुख से विमुख होता हुआ कर्म-द्वंद्व जनित फलमय (शुभ और अशुभ कर्म के फलरूप) सुन्दर सुख और दुःख को बारम्बार भोगता है; जीव अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्व को (अवर्णनीय परम चैतन्य तत्त्व को) प्राप्त करके उसमें स्थित रहता है ।