
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्त : । नित्यमरणे तद्भवमरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चैक एव म्रियते; सादि-सनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्यजीवस्याप्रार्थितमपि स्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रय निश्चयशुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति । तथा चोक्तम् - (कलश--अनुष्टुभ्) स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥ उक्तं च श्रीसोमदेवपंडितदेवैः - (कलश--वसंततिलका) एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफ लानुबन्धम् । अन्यो न जातु सुखदुःखविधौ सहायः स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीवः कर्मद्वन्द्वोद्भवफ लमयं चारुसौख्यं च दुःखम् । भूयो भुंक्ते स्वसुखविमुखः सन् सदा तीव्रमोहा- देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ॥१३७॥ यहाँ (इस गाथा में), संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है ऐसा कहा है । नित्य मरण में (प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के निषेकों के क्षय में) और उस भव सम्बन्धी मरण में, (अन्य किसी की) सहायता के बिना व्यवहार से (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्यायरूप नर-नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति में, आसन्न-अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय के कथन से (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है । सर्व बन्धुजनों से रक्षण किया जाने पर भी, महाबल पराक्रमवाले जीव का अकेले का ही, अनिच्छित होने पर भी, स्वयमेव मरण होता है; (जीव) अकेला ही परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से निज-आत्मा को ध्याकर रज-रहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है । इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--दोहा)
आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में भ्रमता है तथा स्वयं संसार से मुक्त होता है ।स्वयं करे भोगे स्वयं यह आतम जग माँहि । स्वयं रुले संसार में स्वयं मुक्त हो जाँहि ॥ और श्री सोमदेवपंडितदेव ने (यशस्तिलकचंपू काव्य में दूसरे अधिकार में एकत्वानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--वीर)
स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्री पुत्र मित्रादिक) सुख-दुःख के प्रकारों में बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविका के लिये (मात्र अपने स्वार्थ के लिये स्त्री-पुत्र-मित्रादिक) ठगों की टोली तुझे मिली है ।जनम-मरण के सुख-दुख तूने स्वयं अकेले भोगे हैं । मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं ॥ यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से । लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ॥४१॥ और (कलश--वीर)
जीव अकेला प्रबल दुष्कृत से जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र-मोह के कारण स्वसुख से विमुख होता हुआ कर्म-द्वंद्व जनित फलमय (शुभ और अशुभ कर्म के फलरूप) सुन्दर सुख और दुःख को बारम्बार भोगता है; जीव अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्व को (अवर्णनीय परम चैतन्य तत्त्व को) प्राप्त करके उसमें स्थित रहता है ।
जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है । तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है ॥ जनम-मरण के दु:ख अनंते इसने अबतक प्राप्त किये । गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है ॥१३७॥ |