
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इहान्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता । विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारस्य मम भेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता; मित्रामित्र-परिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरम्; सहजवैराग्यपरिणतेः न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति । तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः - (वसंततिलका) मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्नः स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमङ्ग गृहाण तूर्णमज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ॥ तथा हि - (कलश--वसंततिलका) मुक्त्यङ्गनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ॥१४०॥ (कलश--हरिणी) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा । परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमनःप्रियमैत्रिका मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि ॥१४१॥ यहाँ (इस गाथा में) अंतर्मुख परम-तपोधन की भाव-शुद्धि का कथन है । जिसने समस्त इन्द्रियों के व्यापार को छोड़ा है ऐसे मुझे भेद-विज्ञानियों तथा अज्ञानियों के प्रति समता है; मित्र-अमित्ररूप (मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणति के अभाव के कारण मुझे किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्य परिणति के कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभाव संयुक्त परम समाधि का मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधि को प्राप्त करता हूँ ) । इसीप्रकार श्री योगीन्द्रदेव ने (अमृताशीति में २१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
हे भाई ! स्वाभाविक बल-सम्पन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर,उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवी का स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोह-शत्रु का नाश करनेवाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र को शीघ्र ग्रहण कर ।हे भाई ! तुम महासबल तज कर प्रमाद अब । समतारूपी कुलदेवी को याद करो तुम ॥ अज्ञ सचिव युत मोह-शत्रु का नाशक है जो । ऐसे सम्यग्ज्ञान चक्र को ग्रहण करो तुम ॥४३॥ अब :- (कलश--हरिगीत)
जो (समता) मुक्ति सुन्दरी की सखी है, जो मोक्ष सौख्य का मूल है, जो दुर्भावनारूपी तिमिर-समूह को (नष्ट करने के लिये) चन्द्र के प्रकाश समान है और जो संयमियों को निरंतर संमत है, उस समता को मैं अत्यंत भाता हूँ ।मुक्त्यांगना का भ्रमर अर जो मोक्ष-सुख का मूल है । दुर्भावनातमविनाशक दिनकरप्रभा समतूल है ॥ संयमीजन सदा संमत रहें समताभाव से । मैं भाऊँ समताभाव को अत्यन्त भक्तिभाव से ॥१४०॥ (कलश--हरिगीत)
जो योगियों को भी दुर्लभ है, जो निजाभिमुख सुख के सागर में ज्वार लाने के लिये पूर्ण चन्द्र की प्रभा (समान) है, जो परम संयमियों की दीक्षारूपी स्त्री के मन को प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरों के समूह का तथा तीन-लोक का भी अतिशयरूप से आभूषण है, वह समता सदा जयवन्त है ।
जो योगियों को महादुर्लभ भाव अपरंपार है । त्रैलोक्यजन अर मुनिवरों का अनोखालंकार है ॥ सुखोदधि के ज्वार को जो पूर्णिमा का चन्द्र है । दीक्षांगना की सखी यह समता सदा जयवंत है ॥१४१॥ |