+ निश्चय-कायोत्सर्ग का स्वरूप -
कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं ।
तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण ॥121॥
कायादिपरद्रव्ये स्थिरभावं परिहृत्यात्मानम् ।
तस्य भवेत्तनूत्सर्गो यो ध्यायति निर्विकल्पेन ॥१२१॥
परद्रव्य काया आदि से परित्याग स्थैर्य, निजात्म को ।
ध्याता विकल्प विमुक्त, उसको नियत कायोत्सर्ग है ॥१२१॥
अन्वयार्थ : [कायादिपरद्रव्ये] कायादि परद्रव्य में [स्थिर-भावम् परिहृत्य] स्थिरभाव छोड़कर [यः] जो [आत्मानम्] आत्मा को [निर्विकल्पेन] निर्विकल्परूप से [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [तनूत्सर्गः] कायोत्सर्ग [भवेत्] है ।
Meaning : He, who discarding the idea of the durability of other objects, such as body, etc., meditates upon his own soul, with concentrated mind (is said) to have a "withdrawal of attachment from body" (Kayostsarga). (It is also expiation).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयकायोत्सर्गस्वरूपाख्यानमेतत् ।

सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावव्यंजनपर्यायात्मकः स्वस्याकारः कायः ।आदिशब्देन क्षेत्रवास्तुकनकरमणीप्रभृतयः । एतेषु सर्वेषु स्थिरभावं सनातनभावंपरिहृत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यवहारक्रियाकांडाडम्बरविविध-विकल्पकोलाहलविनिर्मुक्त सहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरण-क्षीरवारांराशिनिशीथिनीहृदयाधीश्वरः, तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासादशिखर-शिखामणेर्निश्चयकायोत्सर्गो भवतीति
(कलश--मंदाक्रांता)
कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां
कायोद्भूतप्रबलतरसत्कर्ममुक्ते : सकाशात् ।
वाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्तेः
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ॥१९५॥
(कलश--मालिनी)
जयति सहजतेजःपुंजनिर्मग्नभास्वत्-
सहजपरमतत्त्वं मुक्त मोहान्धकारम् ।
सहजपरमद्रष्टया निष्ठितन्मोघजातं (?)
भवभवपरितापैः कल्पनाभिश्च मुक्तम् ॥१९६॥
(कलश--मालिनी)
भवभवसुखमल्पं कल्पनामात्ररम्यं
तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या ।
सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रं
स्फुटितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम् ॥१९७॥
(कलश--पृथ्वी)
निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फुरन्तीमिमां
समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा ।
जगत्र्रितयवैभवप्रलयहेतुदुःकर्मणां
प्रभुत्वगुणशक्ति तः खलु हतोस्मि हा संसृतौ ॥१९८॥
(कलश--आर्या)
भवसंभवविषभूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्ध्वा ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुंक्ते ॥१९९॥

इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः अष्टमः श्रुतस्कन्धः ॥


यह, निश्चय-कायोत्सर्ग के स्वरूप का कथन है ।

सादि-सांत मूर्त विजातीय-विभाव-व्यंजन पर्यायात्मक अपना आकार वह काय । 'आदि' शब्द से क्षेत्र, गृह, कनक, रमणी आदि । इन सब में स्थिरभाव (सनातन-भाव) छोड़कर (कायादिक स्थिर हैं ऐसा भाव छोड़कर) नित्य-रमणीय निरंजन निज कारण-परमात्मा को व्यवहार क्रियाकांड के आडम्बर सम्बन्धी विविध विकल्परूप कोलाहल रहित सहज-परम-योग के बल से जो सहज-तपश्चरणरूपी क्षीरसागर का चन्द्र (सहज तपरूपी क्षीरसागर को उछालने में चन्द्र समान ऐसा जो जीव) नित्य ध्याता है, उस सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि को (उस परम सहज-वैराग्यवन्त जीव को) वास्तव में निश्चय-कायोत्सर्ग है ।

(कलश--हरिगीत)
रे सभी कारज कायकृत मन के विकल्प अनल्प जो ।
अर जल्पवाणी के सभी को छोड़ने के हेतु से ॥
निज आत्मा के ध्यान से जो स्वात्मनिष्ठापरायण ।
हे भव्यजन उन संयमी के सतत् कायोत्सर्ग है ॥१९५॥
जो निरंतर स्वात्मनिष्ठापरायण (निज आत्मा में लीन) हैं उन संयमियों को, काया से उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कर्मों के (काया सम्बन्धी प्रबल क्रियाओं के) त्याग के कारण, वाणी के जल्प-समूह की विरति के कारण और मानसिक भावों की (विकल्पों की) निवृत्ति के कारण, तथा निज-आत्मा के ध्यान के कारण, निश्चय से सतत कायोत्सर्ग है ।

(कलश--हरिगीत)
मोहतम से मुक्त आतमतेज से अभिषिक्त है ।
दृष्टि से परिपूर्ण सुखमय सहज आतमतत्त्व है ॥
संसार में परिताप की परिकल्पना से मुक्त है ।
अरे ज्योतिर्मान निज परमातमा जयवंत है ॥१९६॥
सहज तेजःपुंज में निमग्न ऐसा वह प्रकाशमान सहज परम तत्त्व जयवन्त है, कि जिसने मोहांधकार को दूर किया है (जो मोहांधकार रहित है ),जो सहज परम दृष्टि से परिपूर्ण है और जो वृथा - उत्पन्न भवभव के परितापों से तथा कल्पनाओं से मुक्त है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारसुख अति अल्प केवल कल्पना में रम्य है ।
मैं छोड़ता हूँ उसे सम्यक् रीति आतमशक्ति से ॥
मैं चेतता हूँ सर्वदा चैतन्य के सद्ज्ञान में ।
स्फुरित हूँ मैं परमसुखमय आतमा के ध्यान में ॥१९७॥
अल्प (तुच्छ) और कल्पना मात्र रम्य (मात्र कल्पनासे ही रमणीय लगनेवाला) ऐसा जो भवभव का सुख वह सब मैं आत्मशक्ति से नित्य सम्यक् प्रकार से छोड़ता हूँ; (और) जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्यवाला है तथा जो चैतन्य चमत्कार मात्र है, उसका (उस आत्म तत्त्व का) मैं सर्वदा अनुभवन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
समाधि की है विषय मेरे हृदय में स्फुरित ।
स्वातम गुणों की संपदा को एक क्षण जाना नहीं ॥
त्रैलोक्य वैभव विनाशक दुष्कर्म की गुणशक्ति के ।
निमित्त से रे हाय मैं संसार में मारा गया ॥१९८॥
अहो ! मेरे हृदय में स्फुरायमान इस निज आत्मगुण संपदा को, कि जो समाधि का विषय है उसे, मैंने पहले एक क्षण भी नहीं जाना । वास्तव में, तीनलोक के वैभव के प्रलय के हेतुभूत दुष्कर्मों की प्रभुत्वगुण शक्ति से (दुष्ट कर्मों के प्रभुत्व गुण की शक्ति से), अरे रे ! मैं संसार में मारा गया हूँ (हैरान हो गया हूँ)

(कलश--दोहा)
सांसारिक विषवृक्षफल दुख के कारण जान ।
आतम से उत्पन्न सुख भोगूँ मैं भगवान ॥१९९॥
भवोत्पन्न (संसार में उत्पन्न होनेवाले) विषवृक्ष के समस्त फल को दुःख का कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मा में उत्पन्न विशुद्ध सौख्य का अनुभवन करता हूँ ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) शुद्ध निश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार नाम का आठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।